जैन धर्म में केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान) को प्राप्त कर जैन सिद्धांतों को प्ररूपित करने, अनंत जन्म व मृत्यु के भवसागर से तरने का मार्ग बतलाने वाले एवं तीर्थ की स्थापना करने वाले महामानवों को तीर्थंकर कहा जाता है। जैन परम्परा में 24 तीर्थंकर हुये हैंतीर्थंकर के च्यवन (गर्भ अवतरण), जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्ति की घटनाओं को कल्याणक कहा जाता है एवं जिस तिथि को ऐसी घटनायें घटित हुई हों, उन्हें कल्याणक तिथि एवं जिन स्थानों पर ये कल्याणक घटित हुए हों, उन्हें कल्याणक भूमि कहा जाता है। जैन धर्मावलम्बी, सभी कल्याणक भूमियों को कल्याणक तीर्थ के रूप में अत्यन्त पावन एवं वंदनीय मानते हैं।
श्री भद्दिलपुर तीर्थ दसवें तीर्थंकर परमात्मा श्री शीतलनाथ जी की कल्याणक भूमि है, जहाँ उनके 4 कल्याणक-च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान घटित हुएभद्दिलपुर के राजा श्री दृढ़रथ एक अत्यन्त धर्मनिष्ठ, न्यायी एवं प्रजा वत्सल शासक थे। उनकी महारानी नन्दादेवी की रत्नकुक्षि में वैशाख कृष्णा 6 को प्रभु शीतलनाथ का च्यवन (गर्भ अवतरण) हुआ। समय बीतने पर माघ कृष्ण 12 को प्रभु का जन्म भद्दिलपुर में हुआ। गर्भावस्था काल में किसी रोग के कारण राजा दृढ़रथ का शरीर दारूण तप्त हो गया था, परन्तु महारानी के स्पर्श मात्र से तप्त वेदना शांत हो गयी थीइसलिये नवजात पुत्र का नामकरण 'शीतलनाथ' रखा गया।
उचित वय में शीतलनाथ जी का पाणिग्रहण हुआ एवं उसके कुछ समय उपरान्त राजा दृढ़रथ ने राज्य-भार शीतलनाथ को देकर प्रवज्या ग्रहण की। वे निस्पृह भाव से अत्यन्त कुशलता एवं वात्सल्य पूर्वक राजकार्य का दायित्व वहन करते रहेकुछ समय उपरान्त संसार की असारता को समझते हुए उन्होंने लौकिक सुखों को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय लिया। उन्होंने भद्दिलपुर में माघ कृष्ण 12 को दीक्षा ग्रहण की एवं तप, आराधना तथा ध्यान में निमग्न रहते हुए पौष कृष्ण 14 को पलाश वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया। केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में विहार करते हुए सत्य, अहिंसा एवं जैन