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श्रावक केश लोचः आगमेतर सोच


- श्री जयमुनि जी


कुछ वर्षों में जैन समाज में ‘श्रावकों का लोच' ऐसा ही विषय उभर कर सामने आया है, जो विचारणा की मांग कर रहा है। 


केश लोच काय-क्लेश तप के अंतर्गत आता है। तप के लिए भगवान महावीर ने बड़ी सावधानियां दी हैं पहली सावधानी तो यह कि जो साधक सम्यक ज्ञान दर्शन का धारक होकर चारित्र का आराधक बन जाए, वही तप के क्षेत्र में प्रवेश करे। जिसने प्रथम तीन मोक्ष मार्गों (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र) का अवलम्बन नहीं लिया, वह कठोर से कठोर तपस्या भी कर ले तो अज्ञान कष्ट या बाल तपस्या का अधिकारी ही कहलाएगा, सकाम निर्जरा का नहीं। 


ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पुष्टि, शुद्धि एवं परिपक्वता के लिए तप का आसेवन होता है। इन तीनों में भी चारित्र की दृढ़ता बढ़ाने के लिए तप किया जाता है। यदि किसी आत्मा ने चारित्र ग्रहण ही नहींकिया तो तप किस उद्देश्य की पूर्ति करेगा? 


पतीली को अग्नि पर रखने का लाभ तभी है, यदि पतीली में पानी हो, पानी में दाल हो, ताकि अग्नि की उष्णता पतीली को गर्म कर के पानी को उबाल दे और उबला हुआ पानी दाल की कठोरता को मुलायम कर दे। बिना पानी और दाल के पतीली को आग पर रखना जैसे अज्ञता, अनर्थदंड माना जाता है, वैसे ही चारित्र पर्यायों के अभाव में तप की अग्नि पर शरीर को तपाना भी एक तरह से बालिशता और मढ़ता में परिगणित हो सकता है।


सर्वप्रथम कहा है कि साधक को पहले आश्रव निरोध करना है, फिर तपस्या करनी है। आश्रव द्वार बंद किये बिना तपस्या का वही परिणाम होता है। जो पानी के स्रोत को रोके बिना तालाब सुखाने का। आश्रव रहित आत्मा तप करे तो लाभदायक अन्यथा सश्रम कारावास।


आश्रव रहित कैसे हुआ जाता है, इसका स्पष्टीकरण प्राणिवध, असत्य भाषण, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह से रहित होकर जो जीव रात्रिभोजन का त्याग कर देता है, वह आश्रवों को रोकता है तथा 5 समिति व तीन गुप्ति का पालन करने वाला, कषायों को वशीभूत करने वाला, इंद्रियों को जीतने वाला, तीन प्रकार के गौरवों से मुक्त तथा तीन शल्यों को त्यागने वाला साधक आश्रव रहित हो पाता है। इस सहज संयम की दृढ़ नींव को स्थापित करने के बाद तपस्या से प्राचीन कर्मों का सफाया होता है। जो संयमी पाप कर्मों के आगमन को रोकता है, वही तप द्वारा कर्म निर्जरा करता है। यह जिन शासन का सर्वोच्च उद्घोष है।


सर्वप्रथम आगम में तपस्या करने का आदेश न साधु-साध्वी के लिए है न श्रावक-श्राविका के लिए। हां, तपस्या करने वाले साधु-साध्वियों का चित्रण पर्याप्त मात्रा में है तथा श्रावक-श्राविकाओं की जीवनचर्या के वर्णन में तपस्या के कुछ संकेत मिले हैं।


संयम के अनुपात में ही तप का अनुष्ठान आगमकारों को अभीष्ट रहा हैउदाहरणार्थ- साधु -साध्वी उत्कृष्ट तपस्या 6 महीने की करते हैं तो श्रावक तेला तप। अर्थात साध की तलना में गहस्थ का तप 60वां अंश हैतेला तप भी उस गृहस्थ के लिए जो 12 व्रती हो तथा तेला भी उस स्थिति में, जब वह असंयम की प्रवृत्तियों से मुक्त हो अर्थात पौषध की अवस्था में हो। 


साधु वर्ग की प्रेरणा तथा श्रावकों के उत्साह ने धीरे-धीरे तप को और अधिक अहमियत दे दी। गृहस्थ वर्ग तेले तप से बढ़ कर अठाई, मासखमण तक की तपस्यायें करने लगे। चम्पाबाई ने 6 महीने तक की तपस्या की। उसकी तपस्या के जुलूस के दौरान बादशाह अकबर के प्रभावित होने का आख्यान भी जैन कथानकों में मिलता है। पुन: प्रश्न उभरता है कि 6 माह की तपस्या संयम के बिना कितनी कर्म-निर्जराकारक बनती है? तथा कितनी आगम सम्मत है? लम्बी-लम्बी तपस्यायें करने और करवाने का यह सिलसिला आज तक निर्बाध चला आ रहा है। श्वेताम्बर परंपरा में अधिक, दिगम्बर परम्परा में कम। वर्षांतप, बेले-तेले की सालों-साल तपस्यायें भी श्रावक जीवन का अंग बन गई। 


कुछ साधुओं की प्रेरणा बनने लगी है कि श्रावकों को लोच करवाना चाहिए और प्रेरणा का तरीका, श्रद्धालुओं की भावुकता का परिणाम है कि श्रावक भी पर्याप्त संख्या में लोच करवाने लगे हैं। चातुर्मास की उपलब्धियों में श्रावकों के लोचों की संख्या भी एक महत्वपूर्ण इकाई बन गई है। जैसे- अठाई, मासखमण, दर्शनार्थियों की भीड़, संवत्सरी के पौषध, दया आदि परिगणनीय उपलब्धियां होती हैं, वैसे ही अब लोच सर्वोच्च उपलब्धि बनता जा रहा है। चार माह के दौरान अहं भाव की प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, मनमुटाव, कलह, द्वेष, द्वंद कितनी मात्रा में न्यून हुएइन सबकी ओर न मुनि वर्ग का ध्यान है, न ही श्रावकों का। मानो सारा जैनत्व और आध्यात्मिक विकास बाह्य तप द्वारा ही सम्पन्न होता हो। 


यह भी एक विडम्बना है कि जैन धर्म में जितनी भाव प्रधानता थी, उसका संपूर्ण स्थान द्रव्य आराधनाओं ने ले लिया है। लोच की शुरूआत भी उस एकांगी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही हुई है। अब तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैन श्रावकों में केवल  एक आखिरी कठोर साधना का प्रवेश बाकी हैयह प्रवेश हुआ और श्रावक वर्ग उत्कृष्ट निर्जरा का भागीदार बना। नग्नत्व का अंतिम बैरियर कब टूटेगा या तोड़ने का अभियान कब चलाया जायेगा? उत्तर चाहिएनिर्जरा के रहस्यवादियों से। 


काय क्लेश के अंतर्गत लोच आता है, जो केवल जैन मुनियों की उत्कृष्ट परीक्षा के रूप में भगवंतों ने आवश्यक रूप से विहित किया हैभारत में कष्ट सहिष्णुता और कष्ट निमंत्रण के बीच का अंतर बहुत कम धर्म प्रवर्तकों ने समझा था। दोनों को एक मानकर अनेक धर्म सम्प्रदायों में कष्ट निमंत्रण की परंपराएं प्रारंभ हो गई। 


शरीर का आत्यंतिक पोषण व आत्यंतिक शोषण जिन शासन के विवेक धर्म में अनुमत नहीं रहा। ‘सरीर माहु नावित्ति' शरीर एक नौका है। नौका का उपयोग तो करना है पर उसको सीमातीत लाड़ करते हुए पानी से बचाना नहीं है, न ही उसे तोड़ कर दम लेना है। शरीर का उपयोग साधक अपने अपने ढंग से करते हैंसाधु अपने ढंग से, श्रावक अपने ढंग से। केश लोच को भी जैन शासन की इस विवेक प्रज्ञा के आलोक में आचार्यों ने समझा और अपनाया है। भगवान महावीर के चारों सम्प्रदायों में साधु-साध्वी केश लोच की परंपरा को अभी तक सुरक्षित रूप से अपनाते आये हैं। चाहे सुविधावाद और आधुनिकता के कितने ही प्रतीक प्रविष्ट हो गये हों, कुछ प्राचीन परंपरायें लुप्त हो गई हों, पर लोच अभी तक शेष है। साथ ही हजारों सालों से श्रावक-श्राविकाओं में लोच का प्रचलन नहीं हुआ। क्योंकि लोच के लिए जो जो पूर्व नियम पालनीय होते हैं, जो कि शास्त्रों में अभी तक उपलब्ध हैं, वे जब तक पूर्ण नहीं हो जायें, तब तक लोच की अनुमति नहीं है। किसी अयोग्य व्यक्ति के साथ जुड़कर लोच शोचनीय बन सकता है। साधु-साध्वी के लिए लोच आवश्यक करणीय है, पर श्रावक के लिए श्रमणभूत प्रतिमा, ग्यारहवीं प्रतिमा के पालन के समय ही अनुमत है। उससे पूर्व नहीं। उस समय भी वैकल्पिक रूप से ही प्रावधान है, अनिवार्य विधान नहीं। ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक साधना का अंतिम पड़ाव है। जो श्रावक पहले दस प्रतिमाओं का पालन कर चुका है, वही ग्यारहवीं प्रतिमा का अधिकारी है। पूर्ववर्ती दस प्रतिमाओं को निभाए बिना ग्यारहवीं प्रतिमा के नियमों का पालन निषिद्ध है। प्रतिमाओं का पालन करने से पहले बारह व्रतों का दीर्घावधि तक निष्ठापूर्वक निर्वाह करना भी आवश्यक है। जिस व्यक्ति ने बारह व्रत अंगीकार नहीं किए, उनका लम्बे समय तक पालन नहीं किया, वह प्रतिमाओं की ओर बढ़ने के लिए अनधिकृत है। चाहे प्रतिमाओं की कुछ बातें उसे लुभाती हों, वह उन्हें निभा भी सकता होपर उन्हें अपनाने का प्रयास तभी मान्य होगा, जब वह पूर्ववर्ती शर्तों को पूरा कर चुका हो, अन्यथा अनधिकार चेष्टा कहलायेगी। 


बारह व्रतों का दीर्घकाल तक सुविशुद्ध पालन, ग्यारह प्रतिमाओं के क्रमशः यथागम निर्वहण के पश्चात ही लोच की भूमिका बन सकती है। इतनी स्पष्टता के बावजूद आज के युग में कुछ सम्प्रदायों ने श्रावकों के लिए लोच की परंपरा डाली है। यह सरासर आगमेतर प्रथा का प्रचलन लगता हैजो श्रावक अंधाधुंध व्यापार में संलग्न है, जिन्हें ब्रह्मचर्य का नियम नहीं, बारह व्रत भी ग्रहीत नहीं हैं, नैतिकता के विरुद्ध अन्यायपूर्वक कमाई करते हैं, नियमित रूप से सामायिक संवर भी नहीं करते, वे यदि ग्यारहवीं प्रतिमा के पालनकर्ता के वैकल्पिक नियम केश लोच को अपनाते हैं तो लगता है कि राजाओं का मुकुट किसी दीनहीन दरिद्र के पैरों पर बांधा जा रहा हो। यह जिनशासन के प्रतीक के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। 


यह सत्य है कि लोच बहुत बड़ी साधना है, जो इसका सेवन करेगा वह आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होगा। परंतु क्या इस मुकाम पर पहुंचने से पहले जिन मोड़ों, मरहलों को पार करना आवश्यक होता है, उन्हें बिना छुए अकेला लोच कल्याणकारी हो सकता है? 


श्रावक वर्ग में त्याग रुचि जागृत हो, भोग प्रवृत्ति न्यून हो, यह प्रयास सर्वथा अनुमोदनीय है और इसी विचारधारा से श्रावक वर्ग में अचित्त भोजन, दिया भोजन, शील पालन, विविध तपश्चर्यायें चलीं और चलने दी गयीं। यद्यपि इन सबके लिए आगमों में कोई विधान नहीं है, पर युग प्रवाह के साथ ये प्रारंभ हुए तो चल ही रहे हैं। इनको बरकरार रखा जाये मगर लोच जैसी कठोर चर्या गृहस्थों तक पहुंचाकर इसकी गरिमा का ह्रास न किया जाये। 


एक ओर सरकारी तंत्र में जैन मुनियों की लोच पद्धति को लेकर दुष्प्रचार किया जा रहा है कि ये छोटे-छोटे बालमुनियों और साध्वियों के केश पाड़कर अत्याचार कर रहे हैं, दूसरी ओर कुछ अत्युत्साही जैन मुनि वर्ग की निजी व्यवस्था को सार्वजनिक बनाने पर तुले हुए हैं। जैन धर्म की मूल दृष्टि को यदि अजैन विचारक समझ नहीं पा रहे तो लगता है कि शायद जैन भी समझने से काफी दूर हैं। मुनिचर्या से जुड़े पहलू जैसे-जैसे श्रावकों द्वारा अपनाये जाने लगे हैं, वैसे-वैसे उनकी गणवत्ता, गंभीरता, उपयोगिता और प्रासंगिकता घटने लगी है। श्रावकों का लोच करना या करवाना जिन शासन के समुज्ज्वल इतिहास की विकृति बन सकती है और भविष्य के लिए पैरों की जंजीर। आगमों में कोई तो उदाहरण हो, जो इस नवीन उद्भावना को समर्पित कर दे।


आनन्द आदि दस श्रावकों के अलावा औपपातिक सूत्र में वर्णित अम्बड़ परिव्राजक जैसे त्यागी श्रावक ने भी लोच को अपनी चर्या का अंग नहीं बनाया। जरा उसकी चर्या का अवलोकन करें और अधुनातन श्रावकों के जीवन की तुलना करें, जो भावुकतावश लोच को सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि मान रहे हैं?


अम्बड़ तथा उसके 700 शिष्य भगवान महावीर के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे, उन्हें ही अपना आदर्श मानते थे। 


1. उन्हें तालाब, बावड़ी, नदी आदि में प्रवेश कर के स्नान करने का त्याग था पर लोच वे भी नहीं करते थे। वर्तमान युग में लोच करवाने वालों का क्या इतना त्याग है? 


2. वे किसी गाड़ी, छकड़ा, पालकी आदि की सवारी नहीं करते थे, वाहन त्यागी थे, पर लोच तक वे भी नहीं पहुंचे। वर्तमान काल में लोच करवाने वाले श्रावक वाहन का प्रयोग करते हैं। छोड़ा नहीं है। 


3. वे ऊंट, घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस आदि पर नहीं बैठने का नियम रखते थे, फिर भी लोच उनकेजीवन का अंग नहीं था। आजकल के श्रावकों के साथ ऐसा नहीं है।


4. वे नाटक, खेल-तमाशा, ड्रामा आदि नहीं देखते थे। इतनी कठोर साधना के बावजूद लोच तक नहीं गये, क्योंकि लोच श्रावक के लिए विहित नहीं है। आज की स्थिति पर भी ध्यान दें।


5. हरियाली उखाड़ना, मसलना, इकट्ठा करना उनके लिए निषिद्ध था, पर लोच से वे दूर रहे। आज जिनको हरियाली काटने छूने का त्याग नहीं है, वे लोच करवा रहे हैं। 


6. लोहे, तांबे, चांदी, स्वर्ण आदि के बहुमूल्य पात्र उनके लिए वर्जित थे। केवल तुम्बी, लकड़ी और मिट्टी के बर्तनों से जीवन यापन करने वाले वे परिव्राजक गृहत्यागी होकर भी लोच नहीं करवाते थे और आज गृहस्थों ने अनुमति ले ली। 


7. उनके वस्त्र गैरिक धातु के अलावा और किसी रंग वाले नहीं हो सकते थे लेकिन पूर्ण जैन मुनि या श्रमणभूत बने बिना लोच न होने से वे लोच नहीं करवाते थे, पर आज लोच करने वाले श्रावकों को काफी छूट मिल रही है। 


8. एक तांबे के यज्ञोपवीत के अलावा किसी प्रकार का आभूषण, हार, कड़ा, कुण्डल, मुकुट उन्हें पूरी तरह निषिद्ध था। ऐसी संन्यास साधना के पालक परिव्राजक भी लोच को अनिवार्य नहीं मानते थे। लेकिन इस युग के लोच प्रिय श्रावकों को क्या नियम हैं? 


9. उन्हें फूल, माला आदि का लगभग नियम था। अगरू, चंदन, केसर आदि सुगंधित लेप लगाने का प्रत्याख्यान भी था क्योंकि संन्यास में ये चीजें नहीं चलतीं पर केशों का लोच नहीं करवाया। मौजूदा केश लोच करवाने वाले उपरोक्त नियम के धारक बने बिना उनसे आगे बढ़ गये। 


10. वे पानी भी बिना आज्ञा पीते नहीं थे। जैन मुनि की तरह उसे अदत्तादान मानते थे। इतनी कठोरता के कारण अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों ने अदत्त पानी पीने के बजाये संथारा कर लिया और पांचवें देवलोक में गये। क्या वे लोच करवा लेते तो उनसे वह पीड़ा सहन नहीं होती? लेकिन नहीं, जैन भिक्षु के प्रतीक चिह्न को उन्होंने स्वयं अपना कर अनादृत नहीं किया। 


श्रावक लोच के समर्थक कह सकते हैं कि अपने शरीर पर होने वाली पीड़ा को सहन करना बड़ी बात है। अत: उस प्रक्रिया से गुजरने वाले श्रावकों को दाद मिलनी चाहिए तथा प्रेरणा देने वाले साधु-साध्वियों को समर्थन। परंतु जैन धर्म को यथार्थ में समझने वाले व्यक्ति के सामने ऐसा कर पाना इसलिए कठिन होता , क्योंकि पीड़ा सहन करना मात्र ही जैनों का लक्ष्य नहीं हैन उसे धार्मिकता और आध्यात्मिकता का अभिन्न अंग माना।


यदि आज कुछ भाई केश लोच का कष्ट सह कर परम धार्मिकता की अनुभूति कर रहे हैं तो कल कोई अपने हाथ-पैरों के नाखूनों को उखाड़कर उत्कृष्ट धार्मिकता की नई पद्धति प्रारंभ कर सकता है। मुनियों का लोच देखकर श्रावकों में स्वयं लोच करवाने की भावुकता उमड़ जाती है। फिर श्रावकों का लोच देखकर अन्य श्रावकों के भावुक होने की संभावना बढ़ती ही बढ़ती है।


देखादेखी में, भावुकता में लोच करवाना उसी तरह वर्जनीय है, जैसे दीक्षा लेना। भावना और भावुकता का स्वरूप एक नहीं होता। जैन धर्म भावना को मुख्यता देता है, भावुकता को नहीं। जैसे कोई व्यक्ति भावुकता वश एकदम दीक्षा लेने का आग्रह करने लगे तो साधु और श्रावक संघ उसे रोकता है। ऐसे ही भावुकता लोच को भी रोका जाना आवश्यक है। यदि किसी के मन में दीक्षा का भाव है, वह साधना का मर्म जान चुका है, वैराग्य अभ्यास परिपक्व है, अन्यान्य अपेक्षाएं पूर्ण कर चुका है, पर लोच के कारण आशंकित है, वह यदि केश लोच करवाता है तो वाजिब हो सकता हैपरंतु यह विवेक तो उसे भी रखना होगा कि केश लोच एकान्त में ही हो, सार्वजनिक रूप से नहीं। जैसे कि दिगम्बर परंपरा में दीक्षा के इच्छुक व्यक्ति एकान्त में नग्नत्व का अभ्यास करते हैं, सार्वजनिक नहीं। एक बार नग्नत्व सार्वजनिक हो जाये तो वह नग्नत्व सार्वकालिक मुनित्व में परिणित मान लिया जाता है। ऐसा ही श्वेताम्बर परंपरा में सार्वजनिक लोच होने के बाद साधुत्व का अंगीकार अवश्यंभावी होना चाहिएअप्रकट अवस्था में एक दो बार करवा लिया तो विरोध भी नहीं होना चाहिए।


अंत में सविनय निवेदन है कि किसी संघ, अंत में सविनय निवेदन है कि किसी संघ,  श्रावक या व्यक्ति विशेष के निजी जीवन का विरोध न मानकर जिन शासन के पारंपरिक प्रतीकों की सुरक्षा का प्रयत्न मानेंगे तो पूर्वोक्त विचारों से कषाय वृद्धि नहीं होगी। 


आगमों का भावार्थ समझने-समझाने में कोताही  हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।