स्वबोध

चिंतन के गंभीर क्षण में


आज प्रश्न उभरा है उर में


‘विश्वास


लड़खड़ाता लग रहा है


ब्रह्मचर्य'


लगता है कि कोसों दूर है। 


‘अविवेक'


का नर्तन निरंतर हो रहा है।


‘विनय'


का भी मंच-गौरव खो रहा है।


‘प्रेम बन्धन ‘


की चमक धुंधला गई है।


खिलने से पहले कली कुम्हला गई है।


‘स्वाध्याय


अब कैसे यहाँ साकार होगा?


नष्ट कब ये विष भरा व्यापार होगा?


‘मौन'


ही है अंत अब इस पटकथा का


‘क्षमा


ही मरहम बनेगा इस व्यथा का।


याद रख जीवन का सार


तू तारु, संभार मुकी, अन्य जंजार॥


- हरख चन्द नाहटा