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श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्द जी नाहटा के 83वें जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति


एक जन्म में सौ जन्म


श्री हरखचंद नाहटा के जीवन काल में ही उन पर लिखा आलेख)


 


एक जन्म में सौ जन्म की बात यदि किसी पर सिद्ध होती है तो वे हैं श्री हरख चन्द नाहटा। एक रूप में अनेक रूप और वे भी रूप ऐसे, जिनमें आप हर पल एक नूतन अक्स देख सकते हैं। नाहटा जी का हर रूप एक सांस्कतिक, धार्मिक, आर्थिक, और सामाजिक परिवर्तन का सूचक है। लगता हैउनकी ऐषणा में इतनी ऊर्जा है कि उन्होंने जो चाहा, उसे उपलब्ध किया। उपलब्ध भी केवल निजी हित के लिए नहीं, पर हित के लिए भी किया।


उनका जन्म बीकानेर के एक सुसंस्कृत और सम्पन्न परिवार में 1936 में हुआ। लम्बे, गौरवर्ण, हंसमुख श्री हरखचन्द नाहटा का आकर्षक व्यक्तित्व है जो दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करता है।


इनके प्रपितामह श्री ताराचन्द जी व अन्य लगभग 175 वर्ष पूर्व बीकानेर की राजकीय सेवाओं से जुड़े रहे। जनश्रुति हैकि नाहटा ताराचन्द जी बीकानेर के गांवों से उगाही करके लाते थे और दरबार में भेट प्रस्तुत करते थे। एक बार उन्होंने गांव वालों की दुर्दशा देख उगाही नहीं की और दरबार में नज़राना प्रस्तुत नहीं किया। बस राजा जी नाराज हो गए पर उन्होंने भी सम्मान रहित रहने को उचित नहीं समझा। परिणामतः वे कानासर गांव चले गए। इसी सुसमृद्ध और दानशील परिवार के सेठ श्री भैरूदान नाहटा के सुपुत्र हैं- हरखचन्द नाहटा। श्री नाहटा आरम्भ से स्वाभिमानी हैं और वे किसी भी अपमानजनक स्थिति में सांस लेना पसंद नहीं करते। तेईस वर्ष की अवस्था में किसी पारिवारिक बात की चुभन से नाहटा जी ने अपने समस्त लोभ- लालच और पारिवारिक सम्पदाओं को छोड़कर जीवन संघर्ष और कर्मक्षेत्र में जुड़ गये। अपनी प्राथमिक सफलता के पीछे वे अपने पूर्वजन्मों के पुण्यों को श्रेय देते हैं। वे गर्व महसूस करते हैं- अपनी जननी दुर्गादेवी के प्रति जिन्होंने उन्हें धार्मिक संस्कार दिये। यही संस्कार उन्हें हर पल प्रकाश देते रहते हैं। 


नाहटा जी प्रकृति से उदार हैं और इसीलिए लगभग सन् 1959 के पास-पास जब उन्होंने ट्रांसपोर्ट का कार्य आरम्भ किया तब उन्होंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार जगजीवन राम सर्वोदय ट्रस्ट (कोलायत) को 50 हजार रुपये दान स्वरूप दिये।


वहीं से युवा श्री हरखचंद नाहटा ने जीवन-यात्रा में नया कदम रखा। वे व्यापार के माध्यम से दिन प्रति दिन उत्कर्ष के शिखर की ओर अग्रसर होते गये।


मैंने पहले ही कहा था न. श्री नाहटा ने एक जन्म में सौ जन्म जिये हैं। ये जन्म एक से भी नहीं - तरह-तरह के हैं। इनके पीछे वे मानवीय दुर्बलताओं सबलताओं को मानते हैं। पूर्वजन्म के पापों-पुण्यों को मानते हैं और मानते हैं- मौजूदा परिस्थितियों को। उनका एक कथन अत्यंत ही सार्थक है कि मनुष्य- किसी असीम सत्ता से संचालित होता है तभी तो मनवांछित फल नहीं पाता और यदि पाता है तो कर्म की दीर्घ साधना और तप से। 


उन्होंने जो कुछ संचय किया उसके पीछे उनकी यही दार्शनिक सोच है।  ट्रांसपोर्ट के धंधे के चरम स्पर्श के साथ श्री  नाहटा ने एक और जन्म लिया। वह जन्म तथा फिल्म निर्माण का। उस व्यवसाय को उन्होंने गम्भीरता से लिया। सन् 1964 के आस-पास उन्होंने कलकत्ता के टेक्नीषियन स्टूडियो' को खरीद लिया और वे फिल्म निर्माण में जुट गये। आपको बता दें कि आज के दुबले-पतले नाहटा जी तब प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे और उनका सोने का दांत जैसे कहता रहता कि नाहटा जी वैभव की गलियों में भटक गये हैं। भटकाव कम नहीं था। अत्यन्त दूभर और टेढ़ी गलियों का था। लेकिन जो जन्म को जीता है वह तो भरपूर शक्ति से जीता है। नाहटा जी ने उसे जिया हर में जिया। तब लगा कि अब यह ऐश्वर्य में आंकठ डूबा जन्म उनका आखिरी होगा पर ऐसा नहीं हुआ। 


मैं इस व्यक्ति की सोच से आश्वस्त हूं।  इनकी सोच रूढ़ नहीं है। बहुत लचीली है। नदी के प्रवाह जैसी है तभी तो सहसा अपना रास्ता बदल लेती है। 


सन् 1980 तक सांसारिक कर्मों में लिप्त व्यक्ति सहसा उस सत्य से परिचित होता है जो जीवन के प्रवाह को बदल देता है।


पूजनीय जैन महात्मा सहजानंद जी के आशीर्वचन और उपदेशों ने इनके व्यक्तित्व पर चढ़ती कालिमा का प्रक्षालन करके उसे पुन: संगमरमर कर दिया।


अत्यन्त प्रिय और लाडले बाईस वर्षीय पुत्र अशोक के आकस्मिक निधन ने जैसे उन्हें झकझोर दिया हो, जैसे कौंच दिया हो।


उसी पीड़ादायक घटना से वैभव के सागर से आंकठ डूबे श्री नाहटा जैसे उस दलदल से निकल आये हों। तब सन् 1976 में शास्त्री श्री शिवशंकर मिश्र ने इनके बारे में जो लिखा था, वह बहुत उपर्युक्त था। उन्होंने लिखा- “श्री हरखचंद के साहचर्य से ज्ञात  हुआ था कि आपने भाई (श्री भंवर लाल जी नाहटा) के पूरक प्रतीत हुए। भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति के अद्वितीय समन्वय, जहां आंसओं की कीमत है. विराग का राग है और है अनुराग में विराग का अद्भुत मिलन श्री हरखचंद सम्भवतया आंसू और मुस्कान की बीच की कड़ी है। धर्म उनका सहायक है। अर्थ उनकी प्रेरणा और काम उनकी सृष्टि का संस्थान।


यह राय आज भी नाहटा जी पर शत-प्रतिशत ठीक बैठती है। आज भी इनमें सभी प्रवृत्तियां हैंएक ओर उन्हें जैनाचार्यों और जैन आर्याओं का आशीर्वचन प्राप्त है, वहां जैनेत्तर संतों, महामण्डलेश्वरों, शंकराचार्यो का भी सांगोपांग आशीर्वाद प्राप्त है। इनके पीछे उनकी धर्म के प्रति समहृदयता ही है। वह उदारता है, जो संकीर्ण धर्मावलम्बियों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य कर सकती है। जैसे उन्होंने एक ओर जैन मंदिरों, दादाबाड़ियों व अन्य धार्मिक स्थलों में खुलकर दान दिया। वहां उन्होंने भिवानी में शिव मंदिर, बीकानेर में हनुमान मंदिर और जौरासी में दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया। यही एक ऐसी बात है जो उन्हें सर्वप्रिय बनाती है। 


श्री नाहटा जी ने निरन्तर पैंतीस वर्ष तक अट्ठम तप किया। उन्होंने आठ दिनों तक उपवास अठाई) भी किये हैं। वे लगातार तप-तपस्या करते रहते हैं। समस्त धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। साथ ही पूजन वंदन के लिए भी वे सदा अग्रणी रहते । दादाबाड़ी (महरौली) के व अन्य संस्थाओं के आयोजन इसके उदाहरण हैं। इनके धार्मिक आयोजनों की गरिमा ही न्यारी होती है। 


अनेक धार्मिक संस्थाओं से जुड़े होने के साथ-साथ श्री नाहटा प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे अपने तथा दूसरे समाज की कई संस्थाओं से जैसे महावीर चैरिटेबल ट्रस्ट, जैन पाठशाला सभा बीकानेर, तुलसी मानस मंदिर हरिद्वार, धर्मचंद गांधी मेमोरियल ट्रस्ट, अहिंसा इंटरनेशनल, जैन सभा, राजस्थान भारती आदि के प्रमुख व सहयोगी कार्यकर्ता हैं। साथ ही राजनीति के क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यक्तियों से इनका गहरा सम्बन्ध है। इनमें कई प्रमुख मंत्री व राजनेता भी हैं। यह भी जानने योग्य है कि इनका सम्बन्ध श्री शेख मुजीब रहमान, श्री वी.पी. कोईराला, श्री जगजीवन राम जी, श्री पन्नालाल बारूपाल, श्री राम सुभग सिंह जी से अत्यन्त ही आत्मीय रहा है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी आपके कई चर्चित व्यक्तियों से संबंध हैं। 


यही कारण है कि श्री नाहटा सर्व समिति से ‘खरतरगच्छ महासंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हो गये और वे आत्मिक आस्था से उसके काम में लग गयेमृत्यु- अभीत नाहटा जी ने सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं को भी उदारता से धन दियाये अंतर्राष्ट्रीय, धार्मिक संस्था विश्वधर्मायतन के कार्यकारी अध्यक्ष हैं और चन्द्रास्वामी, महेश योगी तथा रजनीश आदि धार्मिक योगाचार्यों से इनका सीधा सम्पर्क रहा है। जैन आचार्य श्री तुलसी, सुशील मुनि, यशोदेव सूरी, आनंद धनसूरी तथा पद्मसागर जी का आशीर्वचन इन्हें एक साथ प्राप्त है। आपको यदि संबधित संस्थाओं के नाम गिनाने लगू जिनसे श्री नाहटा जी संबंधित हैंतो एक अलग आलेख तैयार करना पड़ेगा। इसकी अनिवार्यता अब नहीं रहीफिर भी आपको बता दें कि कम्पिल (उत्तर प्रदेश) में इन्होंने एक ऑपरेशन थियेटर का निर्माण कराया है। वे जनहिताय के हर कार्य में सक्रिय हैं और उनका अभय जैन ग्रंथालय (बीकानेर, राजस्थान) एक कल्पवृक्ष की तरह हैजिसमें साहित्य संबंधी अनेक ग्रंथ हैं, जो शोधार्थियों के लिए अत्यंत ही उपयुक्त है।


मैं फिर अपनी बात दोहराता हूं-एक जन्म में सौ जन्म आज भी वे ऐसे ही जीते हैं । अनेक व्यवसायों उद्योगों के साथ आज वे अपने तीन पुत्र ललित, प्रदीप और दिलीप नाहटा के साथ जमीन का बड़े रूप में व्यवसाय करते हैं तो दूसरी ओर फिल्म व्यवसाय के प्रतिष्ठित फाइनेंसर हैं।



श्री नाहटा जी प्रख्यात साहित्यकार श्री राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के साथ


यही कारण है कि इनके निवास स्थान पर हेमा मालिनी, राज बब्बर, दारा सिंह व अनेक निर्माता-निर्देशकों के चेहरे दिख जाते हैं। वे इनसे इतना गहरा लगाव व जुड़ाव रखते हैं कि कइयों के वे प्रेरणास्रोत हो गये हैं। स्मिता पाटिल तो इन्हें पिता स्वरूप मानती थी। अनेक साहित्यकारों से जुड़ाव भी हैं- राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र' आदि से पारिवारिक संबंध है। श्री भवानी प्रसाद मिश्र तो इन्हें असीम अनुराग करते थे। सच तो यह है कि श्री नाहटा का अब सब जन्मों पर एक जन्म उभर रहा है। वह है आध्यात्मिकता से भरा जन्म। धर्म के अनुष्ठानों से भरा जन्म, दान के प्रवाह से भरा जन्म, यही जन्म कदाचित अमर जन्म है- यही यशस्वी जन्म है।


अनादि महामंत्र नवकार


जैन चाहे वह किसी भी संप्रदाय को मानता हो, महामंत्र के रूप में नवकार का ही जाप करेगा जिसके स्वरूप में कहीं कोई भेद नहीं है। इस महामंत्र में ‘जिन पंच परमेष्ठि' को नमस्कार किया गया है। आत्मोत्कर्ष की परम उच्च अवस्था गुणाधिक्य पर अवलम्बित होने से, इसे परमेष्ठि कढ़ कर संबोधित किया हैपरमेष्ठि से तात्पर्य है, ‘परम पद में स्थिति'। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ही क्रमशः पंच परमेष्ठि हैं। ये पांचों परमेष्ठि अनादिकाल से होते रहे हैं व अनन्त काल तक होते रहेंगे, इसमें संदेह का कोई स्थान नहीं है। तीर्थंकरों का क्रम अनादि नहीं है। भूतकाल में भी अनंत चौबीसी हुए हैं एवं भविष्य में भी यह क्रम चलता रहेगा, लेकिन हर काल में हरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हुए हैं व होते रहेंगे। और जब-जब वे हैं तो उन्हें नमन भी है। यह क्रम न पूर्वानुपूर्वी के अनुसार है और न पश्चानुपूर्वी को लेकर है, वरन गुणापेक्षित है। ‘पंच परमेष्ठि' परम पूज्य होने से, परमादरणीय होने से एवं परम उपादेय होने से, नमस्कारणीय होने से 'मंत्र' के रूप में अधि ष्ठित हुआ। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों में इसका सर्वांगीण विवेचन ही उपलब्ध नहीं होता, वरन इसे चौदह पूर्व का सार मानकर इस पर उतनी ही पूज्य निष्ठा की गयी है। इसका शरण, स्मरण तथा समर्पण कर कृतकृत्यता प्रदर्शित की गयी है। अतः यह परम पूज्य महामंत्र अनादि है, यह परम सत्य है और सत्य का कभी नाश नहीं होता, इसीलिये इसे अनादि महामंत्र माना गया है। 


किसी भी व्यक्ति या देव की पूजा नहीं, मात्र गुणों की पूजा है। जिस आत्मा ने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु के गुणों को पाया, उन आत्माओं का वंदन कर उनके गुणों की ओर भी दृष्टिपात करना होगा-


(1) अरिहंत : ‘जिन्होंने नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत, इन चार भवों में निवास करने से होने वाले समस्त दु:खों के मूल कारण मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय, चार कर्म रूपी शत्रुओं को नष्ट किया, वे अरि (शत्रु) हन्त (नष्ट करना) होते हैं। जिसके अनंत दर्शन और अनंत ज्ञान हैं, स्थितिबंध और अनुभागबंध की अपेक्षा आठ कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से भाव मोक्ष प्राप्त हो गया है और जो अनुपम गुणों को धारण किये हुए हैं, ऐसे आत्मा अरिहंत हैं' देव, असुर और मनुष्यों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती आदि से पूज्य, चौंतीस अतिशय रूप गुण एवं आठ प्रतिहार्य होने से इन्हें 'अरिहंत' भी कहा जाता है। यह केवलज्ञानी की सकल अशरीरी अवस्था का नाम है' अरिहंत के 12 मूल गुण होते हैं। प्राचीन ग्रंथों व आगमों में अरिहंताएं की जगह ‘अरहंताणं' का उल्लेख किया गया है, जिसका उदाहरण खारवेल की गुफाओं आदि में भी देखा जा सकता है। ‘अरहंताणं' का अर्थ अ + रह + ताणम् उल्लिखित किया गया है जिसका अर्थ होता है ‘न रहा रहस्य कोई छिपा जिनसे' अथवा जिन्होंने जीवन एवं प्रकृति के समस्त रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। 


(2) सिद्ध : जिसके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं एवं जो स्व स्वरूप में स्थित हैं, आठ गुणों से संपन्न, अष्टम पृथ्वी अर्थात् मोक्ष भूमि में स्थित और अपने कार्य को जिन्होंने समाप्त कर दिया है अर्थात् उन्होंने साध्य को सिद्ध कर लिया है वे सिद्ध हैं। 


सिद्ध अशरीरी, आत्म स्वरूप एवं निराकार होते हैं। वे सीमाओं एवं बंधन से मुक्त होते हैं। मुक्तावस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है, 'मोक्ष बाधारहित, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य और पाप से विमुक्त है। पुनः संसार में आगमन से रहित है, नित्य है, अचल है और आलम्बन रहित है। यहां न तो कोई दुख है, न सुख, न पीड़ा है, न बाधा, न मरण और जन्म है, वही निर्वाण है। वहां केवलज्ञान, केवल दर्शन, अमूर्तत्व, अस्तित्व- यही गुण मुक्तात्मा में रहते हैं। सिद्ध के 8 मूल गुण होते हैं।


3) आचार्य : आचार्य पांच आधार रूपी पंचाग्नि का साधन करते हैं और द्वादशांग रूपी श्रुत में अवगाहन करते हैं, वे पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियों से विशिष्ट होते हैं, वे स्वधर्म एवं अन्य धर्म के ज्ञाता होते हैं, वे आगम और युक्ति से पदार्थों को जान कर जिन भगवान द्वारा कहे तत्वों को निरूपित करने में परी तरह समर्थ होते हैंवर्तमान समय में, जबकि अरिहंत प्रभु का वियोग है, साक्षात् समागम न होने से, आचार्य ही संघ के नायक हैं। आचार्य के 36 मूल गुण होते हैं।


(4) उपाध्याय : जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके, प्रत्यागम का अभ्यास करके, मोक्ष मार्ग में स्थित है तथा मोक्ष मार्ग इच्छु साधुओं को उपदेश देते हैं, ऐसे मुनि भगवंतों को उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय के 25 मूल गुण होते हैं। 


(5) साधु : अध्यात्म की आधार शिला संयम है। जो श्रमण पांच समितियों का पालक है, तीन गुप्तियों से सुरक्षित, पांच इंद्रियों के विषयों से विरक्त है, कषायों को जीतने वाला है और सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान से पूर्ण है, वह संयमी है। साधु अथवा मुनि वह अनिवार्य शर्त है, जिसके अभाव में मोक्ष प्रासाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। साधु के 27 मूल गुण होते हैं। 


अब देखें कि इस क्रम में सिद्ध, जो सर्वोच्च दशा है, उससे पहले अरिहंतों को नमस्कार क्यों किया गया। क्योंकि सिद्ध अवस्था स्वरूप में स्थित हो जाने की अवस्था है जहां शरीर नहीं रहता। जो आत्मा हमें सन्मार्ग दिखाने के लिए उपलब्ध नहीं हैअरिहंत यानी तीर्थंकर, जिन्होंने हमें सिद्ध बनने का मार्ग बतायाउन्हें सबसे पहले नमन किया गया है। अरिहंत सशरीर पूर्णता का प्रतीक है या यूं कहिये, सिद्ध स्वरूप हैऔर बिना शरीर धारण किए हम सिद्ध नहीं बन सकते। इसलिये सबसे पहले तीर्थंकर भगवंत यानी अरिहंत को नमन किया और उसके बाद साधना पथ पर बढ़ते हुए चरणों का क्रमशः वंदन किया है।


इस महामंत्र के जाप से कर्मों का क्षय होता है व सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती हैज्ञानियों द्वारा इस महामंत्र को 14 पूर्वो का सार बताया गया है। इसकी महिमा का वर्णन करने में बड़े-बड़े ज्ञानी भी अपने को अक्षम पाते हैं एवं इसकी महिमा का नहीं पार व इसका अर्थ अपार' बतलाते हैं। इसमें जो 68 अक्षर हैंवह 68 तीर्थों के स्वरूप हैं और इनके दैनिक जाप से लौकिक व अलौकिक सिद्धियां प्राप्त होती हैंयहां तक कि वचन सिद्धि भी हो जाती है। बहुत से चमत्कार मैंने अपनी आंखों से देखे हैं व अनुभव किए हैंअसाध्य बीमारियां भी इसके जाप से दूर हो जाती हैं। जाप करने वाले को इतनी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि अगर वह संकल्प के साथ नवकार बोलता है तो इच्छित लाभ तुरंत मिलता है। 


ऐसे बहुत से चमत्कारों की बातें मैं अपने बुजुर्गों, आचार्यों, साधु-साध्वी समुदायों से सुनता आया , जिन्हें अन्य किसी से सुनने पर विश्वास ही नहीं होता तथा अपने स्वयं में भी बहुत से ऐसे अनुभवों से गुजर चुका हूं। ऐसी दुर्घटनाओं के समय, नवकार के स्मरण मात्र से, जैसे कोई आवरण बन कर आप की रक्षा कर रहा हो, का मैं स्वयं प्रत्यक्ष साक्षी हूंअगर उन्हीं का वर्णन करने लगू तो शायद एक बहुत बड़ी पुस्तक तैयार हो जाये, पर यहां एक घटना का उल्लेख अवश्य कर रहा हूं, जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी गवाह हूं सन् 1986 की घटना है, मैं अपने पुत्र दिलीप के साथ विदेश भ्रमण में था। जगदाचार्य श्री चंद्रास्वामी जी उस समय स्पेन में थे। उन्होंने वायुयायन भेजकर मुझे तथा दिलीप को लंदन से स्पेन बुलाया। वह वहां संसार के सुंदरतम जलयान ‘नबीला' में ठहरे हुए थे। संसार प्रसिद्ध हस्तियां, जिनमें अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर, जार्ज हैमिल्टन एवं जाइरे (कांगो) के राष्ट्रपति मार्शल मुबुतु इत्यादि भी उसी यॉट पर ठहरे हुए थे। मैं और दिलीप भी उन्हीं के साथ यॉट में ठहर गये। एक दिन लंच के समय मार्शल मुबुतु ने किसी विशेष कार्य के लिए धार्मिक अनुष्ठान कराने के लिए स्वामी जी से प्रार्थना की। उन्होंने प्रार्थना को स्वीकार करते हुए पास के एक विशाल भवन में अनुष्ठान कराने का निश्चय किया। दूसरे दिन सुबह जब अनुष्ठान चल रहा था, तो उन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की कि उनकी कमर में बचपन से ही काफी दर्द रहता है। अगर आप कोई आध्यात्मिक शक्ति से हीलिंग' कर दें तो बड़ा उपकार होगा। स्वामी जी ने मेरी उपस्थिति में, अनुष्ठान के बाद उनकी कमर में, जहां दर्द था, अपनी हथेली रखकर तीन बार नवकार मंत्र का जाप किया व कहा कि तीन दिन का प्रयोग है। अगर प्रभु की इच्छा हुई तो अवश्य ठीक हो जाएगा। और आश्चर्य कि तीन दिन के प्रयोग से ही वह असहनीय दर्द हमेशा के लिए गायब हो गया। उसने पूछा कि मुझे कोई मंत्र दे दो ताकि मैं उसका नित्य जाप कर सकू। स्वामी जी को लगा कि नवकार सिखाने में तो इसे समय लगेगा तो उसका सार- संक्षेप 'ऊँ' का जाप करने के लिए कहा और हमेशा के लिए मांसाहार त्याग करके शुद्ध शाकाहारी रहते हुए जाप करने की हिदायत दी, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस घटना से हम सहज ही में नवकार महामंत्र की अलौकिक शक्तियों का अंदाज लगा सकते हैं। हालांकि ऊँ' नवकार महामंत्र को सर्वगुण सम्पन्न रखते हुए एकाक्षर उच्चारण है और शास्त्रों में उसे बीजाक्षर माना गया है। इसमें पांचों परमेष्ठि गर्भित हैं। अरिहंत, अशरीर, (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि अर्थात् 


अ + अ = आ


आ + आ = आ 


आ + उ = ओ


ओ + म = ओम = ऊँ 


इस प्रकार पंच परमेष्ठियों के आद्याक्षरों से निष्पन्न 'ऊँ' की महिमा का वर्णन मनियों के प्रवचन के मंगलाचरण-मंत्र के रूप में रोजाना सुनते आये हैं। 


ऊँकार बिंदु संयुक्तं नित्यं ध्यायति योगिनः। 


कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नम:।।


यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि ओम् को हमने तो पंच परमेष्ठि का बीजाक्षर स्वरूप मान लिया, लेकिन विविध मतावलम्बियों ने इसे परमात्म वाचक, मंगल स्वरूप आदि रूपों में मान्यता दी है। जैन व जैनेत्तर में, जहां भी कोई मांगलिक कार्य करना होता है या मंगल शब्द लिखना होता है तो 'ऊँ' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह तो नवकार के लघु रूप की बात है पर वास्तव में अगर नवकार का लौकिक या पारलौकिक साधना के लिए जप करना हो तो इस जाप के तरह-तरह से प्रयोग सिद्ध उपाय हैं, जिनका ध्यान करना आवश्यक है। जाप करते समय जब ‘णमो अरिहंताणं' बोलेंगे तो अरिहंत परमात्मा का ध्यान करते इस पद को सफेद रंग में ध्यान की मुद्रा में जाप करें। णमो सिद्धाणं' लाल रंग में, ‘णमो आयरियाणं' पीले रंग में, ‘णमो उवज्झयाणं' हरे रंग में तथा ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' काले रंग में ध्यान करते हुए जाप करें। इससे इच्छित लाभ यथाशीघ्र मिलेगा। इन सब के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है जिनका खुलासा करने जाऊंगा तो लेख काफी विस्तृत हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में इसका उल्लेख कर रहा हूं। नवकार महामंत्र पर तो हमारे पूर्वज आचार्यों ने इतना कुछ प्रयोग सिद्ध आध र पर लिखा है कि सारा एकत्र किया जाये तो बीसियों खण्ड की पुस्तक तैयार हो सकती है। मैं तो इस मामले में अल्प बुद्धि हूं इसलिए संक्षेप में लिख कर समापन कर रहा हूं।


यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि नवकार का सतत जाप करने से मंत्र जागृत हो जाता है और व्यक्तित्व विकास में बहुत बड़ा योग कारक बनता है व चेहरे पर दैविक आभा स्वतः उभर आती है। मंत्र को उनके रंगों एवं ध्वनि के अनुरूप जाप करने से आपका ओरा (प्रभा मण्डल) इतना शक्तिशाली व पवित्र हो जाता है, जो दूसरों को आकर्षित भी करेगा एवं अपना प्रभाव तथा व्यक्तित्व की छाप भी छोड़ेगा। अंत में सभी पाठकों से विनम्र निवेदन करूगा कि इस महामंत्र का दैनिक जाप करते हुए अपने कर्मों का क्षय करें एवं मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हों। ऊं शांति


 


-हरख चंद नाहटा


 


कल्याणक तीर्थ भूमि


तीर्थंकर परमात्मा का जहाँ च्यवन (गर्भ), जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान व मोक्ष होता है, उस भूमि को कल्याणक तीर्थ या कल्याणक भूमि कहते हैंजिस तिथि को तीर्थंकर परमात्मा का कल्याणक होता है वह तिथि कल्याणक तिथि कहलाती है। इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर के पाँच कल्याणक होते हैं। परन्तु चौबीसवें व अंतिम तीर्थंकर के 6 कल्याणक हुए क्योंकि उनके च्यवन कल्याणक दो हुए, एक तो ऋषभदत्त की पत्नी देवानन्दा के गर्भ अवतरण का व दूसरा देवानन्दा से महाराजा सिद्धार्थ की पत्नी रानी त्रिशला के यहाँ गर्भ-हस्तांतरण का। इस प्रकार 24 तीर्थंकरों के कुल कल्याणक 121 हुए हैं। जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ का एक वर्ग 120 कल्याणक मानता है, अर्थात् गर्भ-हस्तांतरण को कल्याणक नहीं मानता। 


सर्वाधिक कल्याणक श्री सम्मेत शिखर जी तीर्थ में हुए, जहाँ 20 तीर्थंकर भगवंत मोक्ष गये, अतः यहाँ बीस कल्याणक हुए। उसके उपरांत श्री अयोध्या जी तीर्थ में 5 तीर्थकरो में एक के 3 कल्याणक व 4 तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक हुये, इस प्रकार कुल 19 कल्याणक यहाँ हुये। श्री चम्पापुर तीर्थ (भागलपुर शहर) ही एक ऐसा स्थान है जहाँ किसी एक तीर्थंकर परमात्मा के पाँचों कल्याणक एक ही स्थान पर हुए। वे परमात्मा थे बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी जी। 


प्रान्त के हिसाब से सर्वाधिक 66 कल्याणक उत्तर प्रदेश में हुए। बिहार में 26 (25), झारखण्ड में 25, गुजरात में 3 और अष्टापद तीर्थ में एक। श्री अष्टापद जी तीर्थ, जहाँ परमात्मा ऋषभदेव का मोक्ष कल्याणक हुआ, के बारे में जानकारी अभी नहीं है, लेकिन यह हिमालय स्थित कैलाश पर्वत पर है, ऐसी मान्यता है। कुल कल्याणक तीर्थ (स्थल) 23 हैं। कुल कल्याणक तिथियां 100 हैंमार्गशीर्ष (मिगसर) सुदि 11 एक ऐसी तिथि है, जिसमें सर्वाधिक 6 कल्याणक हुएइसे मौन एकादशी भी कहते हैं। बैशाख माह ऐसा महीना है जिसमें तीर्थंकर परमात्मा के सर्वाधिक 17 कल्याणक हुए।


जिन भाई-बहनों को यात्रा करनी हो तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड व गुजरात (गिरनार जी) के सभी कल्याणक स्थानों की यात्रा 21 दिन में कर सकते हैं। कम से कम एक बार जीवन में सभी कल्याणक तीर्थों की यात्रा एक साथ ही पूरी करनी चाहिये व दूसरों को भी इसकी प्रेरणा देनी चाहिये। 


-ललित कुमार नाहटा


 


 


पूजा स्वस्तिक की, आराधना सूर्य की


स्वस्तिक शब्द का जन्म संस्कृत के शब्द सूर्य प्रतीक।


स्वस्ति से हुआ। स्व + अस्ति = स्वस्ति जिसका अर्थ हैकल्याण। इस शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम, शुभकामना, आशीर्वाद, पुण्य, पाप प्रक्षालन तथा दान स्वीकार के रूप में भी लिया जाता है।


वैदिक संहिताओं में स्वस्तिपाठ के अनेकों सूक्त हैं। प्रत्येक मंगल कार्य में उनका पाठ किया जाता है जिसे स्वस्तिवाचन कहते हैं।


भारत में स्वस्तिक का चित्रण प्रागैतिहासिक काल के शिलाचित्रों में भी देखने को मिलता है। पूर्ण या सबाहु स्वस्तिक का विकास मूलतः अबाहू से हुआ हैयह चिह्न धन चिह्न और गुणन चिह्न दोनों रूपों में अंकित किया जाता है। अंग्रेजी में दोनों चिह्नों को क्रॉस नाम से जाना जाता हैशिला चित्रों में स्वस्तिक का चित्रण पूजा प्रसंगों के साथ-साथ स्वतन्त्र रूप से भी किया गया है। सिंघनपुर-रायगढ़ क्षेत्र, बनिया बेरी-पंचमढ़ी क्षेत्र, चम्बल क्षेत्र तथा सागर भोपाल क्षेत्र में स्थित गुफाओं में अंकित सुबाहु और अबाहू स्वस्तिक चित्रण इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। 


सिंधु घाटी की सीलों में स्वस्तिक के दक्षिणावर्त रूप के साथ वामावर्त रूप भी मिलता है। उस समय दोनों ही प्रकार के स्वस्तिक चित्रण को शुभ माना जाता था। कब, कैसे और क्या दक्षिणावर्त शुभ और वामावर्त अशुभ माना जाने लगा यह आज भी खोज का विषय बना हुआ है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिणावर्त को शुभ और वामावर्त को अशुभ कर्मकांडी पंडितों ने बनाया होगा क्योंकि हिन्दू व बौद्ध धर्म में किसी पवित्र स्थान, देवमूर्ति, देवस्थान या पवित्र वस्तु के चारों ओर की परिक्रमा दक्षिणावर्त होती है क्योंकि सूर्य हमेशा ही उत्तरीवर्त में पूर्व से दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से होता हुआ फिर पूर्व में पहुंच जाता है उत्तरी गोलार्द्ध में बसने के कारण हम इसको शुभ मानते हैं और स्वस्तिक को  सूर्य प्रतीक।


इसके विपरीत अंत्येष्टि के समय मृतक के रिश्तेदार वामावर्त घूमते हैं। जादू-टोना और यंत्रों की सिद्धि के लिए भी वामावर्त घूमते और स्वस्तिक चित्रण करते हैं। मां काली का भी यह प्रतीक चिह्न है। 


जैनियों में यह प्रतीक उनके सातवें तीर्थकर के प्रतीक चिह्न के रूप में लोकप्रिय है। जैन धर्म को मानने वाले लोग स्वस्तिक की चार भुजाओं को सम्भावित पुनर्जन्मों के स्थानों के रूप में मानते हैं। इनके नाम है वनस्पति जगत या प्राणी जगत, नरक, पृथ्वी व जीवात्मा/ब्रह्म। प्रायः बौद्ध मंदिरों में भी इस चिह्न का अंकन मिलता है। हिन्दुओं के तो प्रत्येक मांगलिक अवसर पर इसका अंकन किया जाता है। वह चाहे बहीखातों का प्रथम पृष्ठ हो या फिर मांगलिक अवसरों पर बनाये गये भूमि या भित्ति अंलकरण अथवा पात्र चित्रण। 


उत्तर भारत में बच्चे के जन्म पर बच्चे की बुआ हल्दी और कुमकुम अथवा गोबर से भित्ति अथवा भूमि पर सतिया (स्वस्तिक) बनाती है तथा नेग पाती है। इसी तरह बच्चे के जन्म पर नवजात शिशु की दादी मिट्टी के घड़े पर घी, हल्दी या गोबर से स्वस्तिक बनाती है। उसमें जच्चा के पीने के लिए उबला पानी रखा जाता है। इसे चरुआ कहते हैं। इसी तरह विदा होती कन्या और नववधु द्वारा देहली पर स्वस्तिक बनाने का रिवाज दोनों परिवारों की कल्याण कामना से ओत-प्रोत है।


विद्वानों के अनुसार स्वस्तिक के स्वरूप से  क्रीट, ट्राय, सूसा आदि बहुत से भूमध्यसागरीय देशों के लोग भी परिचित थे। मिश्र, बेबीलोनिया और मेसापोटामिया भी स्वस्तिक का अंकन होता था। मेसोपोटामिया में तो स्वस्तिक उनके सिक्कों का लोकप्रिय चिह्न था। स्वस्तिक को बीजनटाइन आर्ट में गामाडियन क्रास के  नाम से जाना जाता है। इसकी वजह ग्रीक अक्षर गामा की आकृति स्वस्तिक के समरूप होना थी। दक्षिण और मध्य अमरीका की माया संस्कृति तथा उत्तरी अमरीका की नवाजोसों संस्कृति में भी इस प्रतीक का जिक्र आता है। भारत में केवल भूमि या भित्ति चित्रणों में ही नहीं वरन शाहीटम्प, नवदाटोली, हस्तिनापुर तथा अहिच्छत्रा की खुदाइयों में ऐसे पात्र भी मिले हैं जिन पर अन्य अभिकल्पों के साथ स्वस्तिक का अंकन भी था। संस्कृत के अनेकों ग्रन्थों में स्वस्तिक के विभिन्न अर्थों और पदार्थों द्वारा आलेखन का जिक्र है। जैसे मेदिनी शब्द कोश में स्वस्तिक शब्द की व्याख्या इस प्रकार है :


स्वस्तिकः पू. (स्वस्तिक क्षेमम खायतीति) अर्थात् अनन्त आकाश की भांति विस्तारमय कल्याण। इसी तरह उसके बनाने की विधि के बारे में भी बताया गया है।


इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों में स्वस्तिक के अर्थों, लक्षणों तथा बनाने की विधियों का वर्णन किया गया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि स्वस्तिक का जो अंकन तथा वर्णन विभिन्न प्रसंगों, ग्रंथों और शब्दकोशों में मिलता है वह एक सुविस्तृत परम्परा से सम्बद्ध हैऔर भारतीय प्रतीकों में स्वस्तिक का स्थान विशिष्ट और महत्वपूर्ण है।


कुछ विदेशी विद्वानों ने भी स्वस्तिक प्रतीक चिह्न के ऊपर काफी खोजबीन की है। उनके विचार विभिन्न संदर्भ ग्रंथों में लिखित विवेचनों से प्राप्त होते हैंश्री डी.ए. मैकेंजी के अनुसार यह प्रतीक चिह्न विभिन्न प्रतीकार्थों में प्रयोग में आता है; जो रोचक व ज्ञानवर्धक दोनों ही हैं। उनके अनुसार इसे प्रजनन प्रतीक, उर्वरता प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न, अलंकरण-अभिप्रायअग्नि, विद्युत, बज्र, जल आदि का सांकेतिक रूपज्योतिषपरक प्रतीक भारतीय चारों वर्गों का द्योतक आकार, उड़ते हुए पक्षी आदि बहुत से रूपों में व्यायाति किया गया है। व्याख्या का आधार देश-विदेश की हजारों सैकड़ों वर्षों की भिन्न-भिन्न परम्पराये हैं।


स्वस्तिक की रचना बिन्दु को केंद्र मान कर की जाती है। इसका निर्माण 90°, 90° की चार बराबर लम्बाई वाली नवतियों या चतुष्कोणों से जिसको केन्द्र बिन्दु मान एक आड़ी व एक खड़ी रेखा के द्वारा जो एक दूसरे को बिन्दु पर काटती हों, किया जाता हैयह अबाहु स्वस्तिक का रूप प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् बाहु को दक्षिणावर्त घुमा देते हैं जो कि सबाहु स्वस्तिक जन्म देती है। यह चिह्न सूर्य का प्रतीक है क्योंकि सूर्य हमेशा उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्व से निकल कर दक्षिण पश्चिम होता हुआ उत्तर में पहुंच जाता है और प्रत्येक सुबह फिर पूर्व से उदय होता हैअर्थात् स्वस्तिक की चार भुजाएं चार दिशाओं का बोध कराती हैं जिनके अधिपति अग्नि, इन्द्र, वरुण और सोम है। स्वस्तिक की भुजाओं को अपनी इच्छानुसार घटा या बढ़ा सकते हैं। स्वस्तिक के प्रतीक चिह्न को आप किसी भी दिशा में खड़े हो कर देख सकते हैं। सभी ओर से वह समान ही दिखाई देगा। अगर हम स्वस्तिक का संकुचन करने लगे तो यही स्वस्तिक केवल बिन्दु रूप में आ जाएगा जिसको सृष्टि, जीवन और अथवा सूर्य कह सकते हैं।


भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं की व्याख्या चार पुरुषार्थ, चार वर्ग, लोक, चार आश्रम, चार वेद तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्माविष्णु, महेश और गणेश के रूप में की गई है। स्वस्तिक ओंकार की तरह पवित्र माना जाता है और वह उसका मूल रूप भी माना जाता है।


कृषि प्रधान देशों में सूर्य पूजा का चलन आज भी हैभारत में रविवार का दिन सूर्य भगवान को समर्पित है। प्रकृति पूजा संसार का सब से पुरातन धर्म है। सूर्य पूजा का पर्व मकर संक्रांति भारत में बहुत धूमध मि से मनाया जाता ही है पर प्रत्येक त्योहार तथा आनुष्ठानिक संस्कारों के समय सूर्य का प्रतीकात्मक चिह्न स्वस्तिक का आलेखन हल्दी, चावल के पीठे, घी, गोबर, चावल के चूर्ण, आटे आदि से किया जाता है जिसका अर्थ कल्याण कामना के साथ-साथ संसार को नियमित रूप से चलाने वाले सूर्यशक्ति के प्रति नतमस्तक होना भी है।


 -डॉ. विमला वर्मा


महाराज गंगासिंह राठौर, बीकानेर आधुनिक युग के भगीरथ


महाराज गंगासिंह का जन्म राजस्थान की बीकानेर रियासत के महाराजा लाल सिंह जी के यहाँ 3 अक्टुम्बर 1880 को हुआ था। जब इनका जन्म हुआ तब देश अंग्रेजो के अधीन हो चुका था। इनके बारे में कहा जाता है की ये भविष्य द्रष्टा थे, एक समय जब छप्पनिया काल (अकाल) पड़ा तब इन्होने अपने राज्य लिए जो कार्य किये उस कारण इनका राज्य इस विभीषिका से बचा रहा। अपने राज्य के लिए इन्होंने पंजाब की सतलज नदी का पानी ‘गंग-केनाल' के जरिये बीकानेर जैसे सूखे प्रदेश तक लाना और नहरी सिंचित क्षेत्र किसानों को खेती करने और बसने के लिए मुफ्त जमीनें देना था। महाराज गंगासिंह के इन्ही प्रयासों के चलते लोगों ने उन्हें 'कलयुग के भागीरथ' की उपाधि से नवाजा था। इन्होंने ही भारतीय इतिहास में पहली बार अपने राज्य में सतलज नदी से गंग नहर निकलवाई थी जिस कारण उस समय में इनका राज्य भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में गिना जाता था।


1922 में एक मुख्य न्यायाधीश के अधीन अन्य दो न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय स्थापित किया और बीकानेर को न्यायिक-सेवा के क्षेत्र में अपनी ऐसी पहल से देश की पहली रियासत बनाया। अपनी सरकार के कर्मचारियों के लिए उन्होंने ‘एंडोमेंट एश्योरेंस स्कीम' और जीवन बीमा योजना लागू की, निजी बैंकों की सेवाएं आम नागरिकों को भी मुहैय्या करवाई, और पूरे राज्य में बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया!


बीकानेर को जोधपुर शहर से जोड़ते हुए रेलवे के विकास और बिजली लाने की दिशा में भी ये बहुत सक्रिय रहे। जेल और भूमि सुधारों की दिशा में इन्होंने नए कायदे कानून लागू करवाए,नगरपालिकाओं के स्वायत्त शासन सम्बन्धी चुनावों की प्रक्रिया शुरू की, और राजसी सलाह-मशविरे के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन भी किया।1918 में इन्हें पहली बार 19 तोपों की सलामी दी गयी, वहीं 1921 में दो साल बाद इन्हें अंग्रेजी शासन द्वारा स्थाई तौर 19 तोपों की सलामी से योग्य शासक माना गया।सन 1880 से 1943 तक इन्हें 14 से भी ज्यादा कई महत्वपूर्ण सैन्य-सम्मानों के अलावा सन 1900 में ‘केसरेहिंद' की उपाधि से विभूषित किया गया। 2 फरवरी 1943 को बंबई में 62 साल की उम्र में आधुनिक बीकानेर के निर्माता जनरल गंगासिंह का निधन हुआ।


अंग्रेज इनकी वीरता से भलीभांति परिचित थे। इनकी वीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ‘इम्पीरिअल वार कैबिनेट' के एकमात्र भारतीय सदस्य थे। इनकी अपनी अलग से एक फौज थी जिसमें पूरे देश से सर्वोत्तम सिपाहियों को भर्ती किया जाता था। इस आर्मी को गंग-आर्मी कह कर पुकारा जाता था। (जब भारत आज़ाद हुआ और पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया तो इसी गंग फौज के बलबूते पर ब्रिगेडियर भवानी सिंह जी ने पाकिस्तानियों को मार भगाया था)।


गंगा सिंह जी की वीरता की बातें ब्रिटिश राजदरबार में पहुंची तो ब्रिटिश किंग जॉर्ज पंचम ने इनको मिलने का न्योता भेजा। गंगा सिंह जी अंग्रेजों की धूर्तता से परिचित थे और यह भी जानते थे की अंग्रेज भारतीयों को अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। गंगा सिंह जी करणी माता (देशनोक) के बहुत बड़े भक्त थे अत: करणी माता का नाम लेकर वे इंग्लैंड को रवाना हुए। जब जॉर्ज पंचम से मिलने वे राजदरबार में पहुंचे तो दरबार पूरा भरा हुआ था और बीचोबीच एक पिंजरा पड़ा था जिसमे शेर दहाड़ मार रहा था। गंगा सिंह जी परिस्थिति भांप चुके थे की तभी किंग जॉर्ज पंचम खड़ा हुआ और पूरी सभा से गंगा सिंह जी का परिचय करवाया और उनकी वीरता का बखान करते हुए उन्हें उस शेर से लड़ने की चुनौती दी। गंगा सिंह जी को जिसका भय था वही हुआ लेकिन अपनी लाज रखने के लिए उन्हें शेर से लड़ते हुए मरना मंजूर था। गंगा सिंह जी ने अपनी इष्ट देवी करणी माता को याद किया और शेर के पिंजरे में प्रवेश किया। कुछ पल के लिए शेर उन्हें ताकता रहा लेकिन जैसे ही शेर ने उनके ऊपर छलांग लगायी उस पर एक वार हुआ और उस एक वार में ही उस शेर का काम तमाम हो गया था। पूरा दरबार आश्चर्यचकित रह गया उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ की एक नाटा सा भारतीय कैसे एक विशाल शेर को एक ही वार में ढेर कर सकता हैउन्होंने उस समय चूड़ियों के खनकने की आवाज सुनी थी और जब इस रहस्य के बारे में गंगा सिंह जी से पूछा गया तो उन्होंने अपनी इष्ट देवी के बारे में बताया। पूरा दरबार गंगासिंह जी के सम्मुख नतमस्तक था स्वयं महारानी ने इस बात के लिए माफी मांगी।


शायद आपको इस घटना पर यकीन नहीं होगा लेकिन यह सच है ब्रिटिश दरबार से जुड़ी फाईलों में इसका उल्लेख है लेकिन उसमें बताया गया है की गंगा सिंह जी को द्वितीय विश्वयुद्ध में दिखाई वीरता के लिए दरबार में बुलवाया गया था जबकि बीकानेर संग्रहालय में इस घटना का विस्तृत वर्णन मिलता है। अगर आप करणी माता के बारे में जानते हैं तो भजनों के संग्रह में आप इस घटना को सुन सकते हैं।


जय भवानी। जय राजपुताना।


-Pradeep Lalchand Surana, Bikaner