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 श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्द जी नाहटा की 20वीं पुण्यतिथि विशेषांक


जिन-शासन-सेवक, तीर्थ-रक्षक श्री हरखचन्द जी नाहटा


  


मेरा नाहटाजी के साथ कई सालों तक संबंध रहा। मैं अहमदाबाद में और श्री नाहटा जी दिल्ली में रहते थे, फिर भी हमारा संबंध घनिष्ट हुआ और साथ-साथ कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। जब भी जैन-शासन का कोई तीर्थ संबंधी प्रश्न उपस्थित होता और मैं नाहटाजी से बात करता तो तुरंत ही अपने सभी कामों को छोड़कर तीर्थ-रक्षा के कार्य में वे लग जाते।  इतना ही नहीं, वे जो भी कार्य अपने हाथ में लेते सभी कार्य जी-जान से करते और कार्य की समाप्ति तक दम नहीं लेते थे। वे अपनी सूझ और कुशाग्र बुद्धि द्वारा हर कार्य को सफल करते थे। यही उनकी अद्भुत कार्य-पद्धति थी, जिसका मैं बार-बार कायल होता रहा हूँ। स्वास्थ्य प्रतिकूल होते हुए भी वे मांडवला स्थित जहाज मंदिर जैसे महत्त्वाकांक्षी आयोजन में पूर्णतः समर्पित होकर कार्य करते रहे और जीवन के अंत तक तीर्थों एवं शासन के कार्यों में हर संभव योगदान करते रहे। उनको आध्यात्मिक कवि श्री देवचंद्र जी और श्रीमद् राजचंद्र जी की अनेक पंक्तियां कंठस्थ थीं और अपने अवकाश के समय में वे सभी पद गुनगुनाते रहते एवं उससे आत्मिक आनंद लेते थे। जब-जब हम साथ में यात्रा-प्रवास करते थे तब-तब मुझे आध्यात्मिक पद सुनाते थे और आनंदानुभूति कराते थे। मैं खुद आश्चर्य में पड़ जाता था कि एक तरफ  कर्मयोग और दूसरी तरफ अध्यात्म-साधना, इन दोनों का समन्वय नाहटा जी में समान रूप से कैसे पाया जाता था? मैंने कई बार उनसे इन ‘आत्माओं' की अद्भुत बातें भी सुनी है। उनके यकायक स्वर्गगमन से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन शासन को बहुत ही बड़ी क्षति हुई है। हम सबने एक कर्मठ कार्यकर्ता को गंवाया है। ऐसे धर्मवीर साधक और आत्मा को नमन करता हूँ। 


- श्रेणिक कस्तूर लालभाई


हरखचन्द जी नाहटा : एक विरल व्यक्तित्व


भाईजी हरखचन्द जी के परिवार से मेरे परिवार का पारस्परिक संबंध कम से कम तीन पीढ़ियों का है। बीकानेर में हमारे घर तो पास-पास हुआ ही करते थे, उससे भी ज्यादा परिवारों के कई सदस्य एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े थे। मेरे पूज्य पिताजी, श्री मेघराज जी नाहटा के अभिन्न मित्र थे। श्री मेघराज जी, श्री हरखचन्द जी के चाचा थे। मेरे चाचाजी घेवरचंद जी का श्री जयचंद लाल जी नाहटा, श्री पन्नालाल जी नाहटा एवं श्री हरखचन्द जी नाहटा के साथ अभिन्न मित्रता का व्यवहार था, जिन्हें एक युवा चौकड़ी की अपने समय में संज्ञा दी जाती थी।


मेरा स्वयं का श्री हरखचन्द जी भाईजी से संपर्क दिल्ली में 1980 के करीब से रहा है। जैन आयोजनों में अधिकतर श्री पन्नालाल जी नाहटा के माध्यम से उनसे मुलाकात होती थी। बीकानेर और परिवारों के पुराने निकट संबंधों की वजह से आपसी जानकारी धीरे-धीरे आत्मीयता के एक नए आयाम का विस्तार निरंतर होता रहा।


भाईजी हमेशा समाज के हर किसी काम के लिए सदैव तत्पर रहते थे। जैन महासभा का कार्यक्रम हो, महावीर जयंती, क्षमावणी, स्मारक का कोई अवसर, दादाबाड़ी का कोई पूजा-उत्सव का कार्यक्रम हो, दिगंबर, तेरापंथ, स्थानकवासी किसी भी संत का आगमन हो, व्याख्यान हो, भाईजी अवश्य उपस्थित होते और तन, मन, धन से उनका पूरा-पूरा सहयोग हमेशा रहता। 


सरकारी या राजनीतिज्ञों से किसी भी तरह का काम होता, हरखचन्द जी तुरंत करवा देते। शायद ही कोई शिष्टमंडल दिल्ली में हरखचन्द जी के बिना किसी मंत्री, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति या राष्ट्रपति जी से मिलने गया हो। उनकी प्रसन्न मुद्रा और मधुर व्यवहार हर किसी व्यक्ति का दिल छू लेता। कलकत्ता, कानपुर, पावापुरी, मधुबन, हस्तिनापुर, बीकानेर, वीरायतन-राजगिरि, पालीताणा आदि सभी धर्म क्षेत्रों में माननीय हरखचन्द जी का पूरा-पूरा वर्चस्व था और कोई भी मुख्य उत्सव, आयोजन उनकी उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता। सभी गुरू महाराज, सभी पदाधिकारी, सभी कार्यकर्ता एवं स्वयंसेवक भाईजी को आदर और पूर्ण स्नेह से चाहते थे। 


उपरोक्त बातों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि भाईजी का विरल व्यक्तित्व किस तरह से जैन धर्म की सभी धाराओं को समान रूप से आत्मसात करता रहा। जैन एकता में वे जीवनपर्यंत विश्वास करते रहे और इस लक्ष्य के लिए हमेशा अपनी पूरी शक्ति लगा देते थे। किसी भी तरह के आपसी विवाद को बड़ी सूझ-बूझ से मिनटों में शान्त कर देते। उनका ध्येय यही रहता कि समन्वय एवं सौहार्द्र बना रहे। 


बाल दीक्षाओं को रोकने, शिथिल साध्वाचार को अंकुशित करने, अवांछनीय परंपराओं को दूर कर स्वस्थ व्यवस्थाएं करने, स्वधर्मी वात्सल्य, स्वाध्याय, साहित्य प्रकाशन, नशाबंदी, जीवदया और साधु-साध्वियों की सेवा आदि अनेकानेक प्रवृत्तियों ने भाईजी के जीवन को विरल व्यक्तित्व प्रदान किया। 


व्यापार-व्यवसाय, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक सभी क्षेत्रों में भाईजी की सूझ-बूझ को एक विशिष्ट मान्यता दीजो उन्होंने कह दिया वह हो गया। जो उन्हें कह दिया गया, कार्य सौंप दिया गया, वह निश्चित रूप से हो गया। लोगों का ऐसा विश्वास बना हुआ था। 


नाहटा जी खरतरगच्छ समाज के सिरमौर थे। बीकानेर एवं दिल्ली जैन समाज के भी शिरोमणि थे।  वे अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने पुत्र ललित को भी समाज के काम-काज करने में निपुण बना गए।  यह उनकी समाज के प्रति अति विशिष्ट अनपुम भेंट है। आनेवाले वर्षों में यह नाहटा युवक निश्चित रूप से समाज और राष्ट्र को सेवाएं समर्पित कर नाहटा वंश और जैन समाज को गौरवशाली बना सकेगा। 


परिवार, गच्छ, समाज, राष्ट्र सब अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने तरीकों से श्री हरखचन्द के आदर्शों को, सेवावृत्ति को अपनाकर सर्वकल्याण कार्य करेंगे । विश्व में शांति होगी। प्राणियों का कल्याण होगा। यही नाहटा जी का सच्चा अभिनंदन होगा, यही श्रद्धांजलि होगी, यही भावांजलि होगी, यही उनकी युगों-युगों तक यादगार होगी।


-रिखबचंद जैन


शेरदिल इनसान थे भाईजी


हरखचन्द जी मुझसे उम्र में छोटे, पर कद में बड़े थे। हमारी पहली संगत के वक्त मैं उन्नीस-बीस वर्ष और वे सत्रह-अठारह के बीच में थे। मैं बिल्ली के डोलों से भी भय खाने वाला और वे झपटते शेर के जबड़ों को दो फाड़ कर देने का हौसला रखने वाले। संभवतया हम एक दूसरे में अपने-अपने अधूरेपन की पूर्णता का अहसास कर रहे थे, इसीलिए घनिष्ठता और निकटता निरंतर वर्द्धमान रही। 


वे स्वयं तो निर्भीक थे ही, सभी को अभय दान  भी देते। एक किस्सा है काफी पुराना करीब तीस साल पहले का। कुछ अत्यंत निकट के स्वजन आर्थिक अपराधों के कथित दोषारोपण पर फौजदारी अदालत में उपस्थित थे। हम दोनों भी उनकी हौसला अफजाई के लिए उनके साथ थे। अचानक कुछ विभागीय व्यक्तियों ने मुझे घेर कर भयाक्रांत करना चाहा ताकि मैं वहाँ से चला जाऊं। हरखचन्द तुरंत दूर से दौड़कर आए, मुझे एक किनारे कर दिया और स्वयं का परिचय देते हुए ऐसा हौसला दिखाया कि विभागीय दबाव की संडसी से सभी उन्मुक्त हो गए।


पाठ्यक्रम की शिक्षा उन्हें विशेष प्रिय नहीं रही। पर उनकी ‘सिखाई' अद्भुत थी। किसी भी स्थिति को सतह पर नहीं देखते, उसकी समीक्षा में आनन-फानन में जड़ तक पहुँच जाते। व्यवसाय जगत में थे तो उन्हें हमेशा नए आयामों की तलाश रहती। प्राप्य के लिए चाणक्य-सी साधना और लगन से काम करते। इक्कीस- बाइस वर्ष की उम्र में ही त्रिपुरा आउट एजेंसी की स्थापना की। श्री कानमल जी सेठिया के चिंतन में शरीक हुए और फिर नेतृत्व किया ऐसे व्यवसाय का जो एक दम नए ढंग का व्यवसाय था और उनके परंपरागत् पारिवारिक व्यवसाय से बिल्कुल मेल नहीं खाता था। फिर बड़े संयुक्त पारिवारिक प्रतिष्ठान के सभी सदस्य किसी भी प्रयोग को अवांछनीय जोखिम मानने वाले थे। रेकार्ड में दर्ज करने लायक है कि सभी ने हरखचन्द जी को इतनी कम उम्र में पूरे परिवार की तरफ से और अन्य सभी भागीदारों ने व्यवसाय में एक स्वर से अपना मुखिया बनाया। जो व्यक्ति उन्हें जच गया उसका बहुत भरोसा करने लगते थे। सभी तरफ सुगंध फैलाने वाले गुलाब को समय-समय पर इस कारण खतरे उठाने पड़े और नतीजतन जीवन में इतने उतार-चढ़ाव बिरलों ने देखे होंगे। 


धुन के पक्के, लगन में अटल, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री हरखचन्द नाहटा ने सर्वांगीण जीवन जिया। सहर होने तक शमा हर रंग में जली, पर एक रंग निरंतर गहन से गहनतम होता गया। सभी विद्याओं से उन्हें लगाव था, पर जैन धर्म, दर्शन और जीवनशैली उनकी ‘जीव-जड़ी' थी। पिछले दशाब्द का उनका हर लम्हा जैनत्व और आनश्ता प्रभावना प्रस्फटित करवाने में लगा। जब तक इनसानिय कायम रहेगी, तब तक उनकी खुशबू कायम रहेगी। काश ! मैं उनके जैसा हो पाता। 


-टोडरमल लालाणी


सम्पादकीय


परिवार नहीं, पार्टी को प्रमुखता


कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है जिसने देश में बहुत वर्षों तक राज किया। विकास भी किया। बहुत योग्य नेतृत्व क्षमता है, अधिकतर कांग्रेसी नेताओं में। लेकिन एक कमी है जो सारी अच्छी बातों को ढक देती है, वह है एक परिवार विशेष के प्रति अंध समर्पण। इसी अंध समर्पण के कारण बिना योग्यता के उस परिवार को कांग्रेस का भाग्यविधाता समझ बैठना। 


उसी का परिणाम है इस पार्टी का सिमटते जाना। सिमटे भी क्यों नहीं, जो भारतीय संस्कार व रीति रिवाज से बिलकुल अनभिज्ञ हैं वो देश की आत्मा को कैसे समझेंगे व आम नागरिक उसे कैसे स्वीकार करेंगे। आश्चर्य तो इस बात का है कि योग्य व्यक्ति भी इस विषय में चुप्पी साध लेते हैं। आवश्यकता है भय रहित योग्य व्यक्ति परिवार की जगह पार्टी के हित की बात सोच, उचित निर्णय लें और किसी योग्य के हाथों पार्टी का नेतृत्व सौंपें। वैसे गम्भीरता से विचार करें कि कांग्रेस मात्र एक परिवार से मुक्त हो जाय तो कोई भी नहीं चाहेगा कांग्रेस मुक्त भारत। 


 



अन्न का आदर


एक बालक रोजाना स्कूल में खाना खाते वक्त टिफिन पूरी तरह पोंछ कर खाता, एक कण भी नहीं बचाता। उसके दोस्त उसका मजाक उड़ाते। एक ने पूछा- तुम रोजाना टिफिन में एक कण भी नहीं छोड़ते? उसका जवाब था- यह मेरे पिता के प्रति आदर है, जो इसे खरीद कर लाते हैं। ...और मां के प्रति आदर है, जो सुबह जल्दी-जल्दी बड़े चाव से इसे बनाती हैं। यह आदर उन किसानों के प्रति है, जो खेतों में कड़ी मेहनत से इसे पैदा करते हैं। अत: जूठा छोड़ने में अपनी शान न समझे। कहीं पर भी जूठा छोड़ना महापाप है। सदैव अन्न का आदर करें।


(साभार : प्रज्ञा पथ)


महाराणा प्रताप


वियतनाम विश्व का एक छोटा सा देश है जिसने अमेरिका जैसे बड़े बलशाली देश को झुका दिया। लगभग बीस वर्षों तक चले युद्ध में अमेरिका पराजित हुआ था। अमेरिका पर विजय के बाद वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष से एक पत्रकार ने एक सवाल पूछा। जाहिर सी बात है कि सवाल यही होगा कि आप युद्ध कैसे जीते या अमेरिका को कैसे झुका दिया? उस प्रश्न का दिए गए उत्तर को सुनकर आप हैरान रह जायेंगे और आपका सीना भी गर्व से भर जायेगा- " देशों में सबसे शक्ति शाली देश अमेरिका को हराने के लिए मैंने एक महान व श्रेष्ठ भारतीय राजा का चरित्र पढ़ा, और उस जीवनी से मिली प्रेरणा व युद्धनीति का प्रयोग कर हमने सरलता से विजय प्राप्त की।"


आगे पत्रकार ने पूछा- कौन थे वो महान राजा?


मित्रों जब मैंने पढ़ा तब से जैसे मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया आपका भी सीना गर्व से भर जायेगा। वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने खड़े होकर जवाब दिया- वो थे भारत के राजस्थान में मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप! महाराणा प्रताप का नाम लेते समय उनकी आँखों में एक वीरता भरी चमक थी। आगे उन्होंने कहा अगर ऐसे राजा ने हमारे देश में जन्म लिया होता तो हमने सारे विश्व पर राज किया होताकुछ वर्षों के बाद उस राष्ट्राध्यक्ष की मृत्यु हुई तो जानिए उसने अपनी समाधि पर क्या लिखवाया- “यह महाराणा प्रताप के एक शिष्य की समाधि है" 


कालांतर में वियतनाम के विदेशमंत्री भारत के दौरे पर आए थे। पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार उन्हें पहले लाल किला व बाद में गांधीजी की समाधि दिखलाई गई। ये सब दिखलाते हुए उन्होंने पूछा- मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप की समाधि कहाँ है? तब भारत सरकार के अधिकारी चकित रह गए और उन्होंने वहाँ उदयपुर का उल्लेख किया। वियतनाम के विदेशमंत्री उदयपुर गये, वहाँ उन्होंने महाराणा प्रताप की समाधि के दर्शन किये। समाधी के दर्शन करने के बाद उन्होंने समाधि के पास की मिट्टी उठाई और उसे अपने बैग में भर लिया। इस पर पत्रकार ने मिट्टी रखने का कारण पूछा! उन विदेशमंत्री महोदय ने कहा- ये मिट्टी शूरवीरों की है । इस मिट्टी में एक महान् राजा ने जन्म लिया। ये मिट्टी मैं अपने देश की मिट्टी में मिला दंगा ...ताकि मेरे देश में भी ऐसे ही वीर पैदा हो। मेरा यह राजा केवल भारत का गर्व न होकर सम्पूर्ण विश्व का गर्व होना चाहिए।


Chetan Sethia, Bikaner


देह में आत्मा है


जैसे अरणी लकड़ी में अग्नि है, दही में घी है, तिलों में तेल है, पुष्पों में सुगंध है, जमीन में पानी है, वैसे ही शरीर में जीव है। जैसे पिंजरे में रहा हुआ पंछी पिंजरे से जुदा है, वृक्ष पर बैठा हुआ पक्षी वृक्ष से जुदा है, पोशाक पहनने वाला पोशाक से भिन्न है, वैसे ही देह से आत्मा भिन्न है।


देहधारी आत्मा में संकोच विकास का गुण है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा कितनी बड़ी है या कितनी छोटी है। जीव जिस समय जिस देह में हो, उस समय जीव उसी देह के प्रमाण का कहलाता है। जैसे-जैसे शरीर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे जीव विकास पाता जाता है और शरीर के भागों में व्याप्त होकर रहता है। शरीर दुर्बल होने पर या हाथ पैर कट जाने पर जीव के प्रदेश संकुचित हो जाते हैं। 


जैसे दीपक का प्रकाश खुला हो तो वह पूरे घर में फैल जायेगा, परंतु यदि उस पर एक बर्तन ढक दिया जाये तो उसका प्रकाश उतने ही भाग में संकुचित होकर समा जायेगा। वैसे ही कर्म के बंधन में बंधा हुआ जीव जिस देह को धारण करता है, उसी के प्रमाण में वह रहता है। हाथी के शरीर में रहा हुआ जीव हाथी प्रमाण प्रदेश रोक कर रह सकेगा और चींटी के शरीर में रहा हुआ जीव उतना ही विभाग रोक कर रह सकेगा। उसके सुख दुख का अनुभव भी उतने ही विभाग में होगा। यदि शरीर के बाहर भी इस जीव की मौजूदगी हो तो उस स्थान में रहे हुए शीत, उष्णता, सुख-दुख आदि का अनुभव भी इस जीव को होना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं होता। सुखी होने के लिए अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न भी इस शरीर में रह कर ही किया जाता है और सुख व शांति, दुख या ज्ञान का अनुभव भी इस देह के अंदर रहे हुए आत्मा को ही होता है। इसलिए आत्मा देह प्रमाण है। 


कर्मों के बंधन छूट जाने पर, दीपक के प्रकाश की भांति, जीव कितना बड़ा है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता । इसलिए ज्ञान रूपी शक्ति की अपेक्षा से आत्मा को सर्वव्यापक माना जाता है। 


भगवान शिव से पूछा गया कि आप हमेशा विश्राम में कैसे रहते हैं,


जबकि आपके कंठ में तो विष है?


तब महादेव ने बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया-मेरे कंठ में तो विष है, लेकिन हृदय में राम हैं, इसलिए मुझे सदा ही विश्राम है।


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


श्रेष्ठिवर्य श्री हरखचन्द जी नाहटा की 20वीं पुण्यतिथि विशेषांक


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