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महासती साध्वी कोशा


२० वर्ष पश्चात इन पत्रों को पुनः प्रकाशित करने का उद्देश्य है कि विद्वान लेखक की सोच को स्थान देते हुए राजनर्तकी कोशा को ‘महासती महासाध्वीरत्ना श्री कोशा श्री जी' से जैन साहित्य में उद्बोधित किया जाना चाहिए।


आदरणीय रामेश्वर प्रसाद सिंह जी, 


सविनय जय जिनेन्द्र।


अत्र कुशलम् तत्रास्तु।


‘पाटलिपुत्र की राजनर्तकी'  नामक आप की पुस्तक को मैं पूरी पढ़ चुका हूं। श्रेष्ठ उच्च भाषा में पुस्तक लिखी है। यह मैं अपने पूर्व पत्र में लिख चुका हूं। प्रांजल भाषा में लिखी पुस्तक कहानी या नाटक की दृष्टि से तो उत्तम है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने पर लगता है कि उसमें काफी कुछ ऐसा भी लिखा गया है, जो सत्यता से परे है। उदाहरणार्थ -


पृष्ठ संख्या 42 पर पाटलिपुत्र की नगरवधू के चयनोत्सव समारोह में आप ने जैनाचार्य भद्रबाहु की उपस्थिति बताई है, जो मेरी समझ व ज्ञान से सही नहीं है।


पृष्ठ संख्या 51 व उसके आगे भी ऐसा लिखा है कि स्थूलभद्र के सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त कर तक्षशिला लौटने से पहले ही स्थूलभद्र के पिता का अंत हो चुका था व उसकी भगिनी के साथ राजा का जबरदस्ती विवाह होने का लिखना भी सही नहीं। शास्त्रानुसार कहानी बिल्कुल भिन्न है। आप की पुस्तक के अनुसार तो स्थूलभद्र ने अपने पिता की हत्या/ आत्मदाह के बाद 12 वर्ष कोशा के यहां बिताये। 


जबकि सत्य तो यह है कि 12 वर्ष कोशा के यहां व्यतीत करने के बाद उनके पिता की हत्या / आत्मदाह हुआ और इस खबर को सुनने के बाद स्थूलभद्र विरक्त हुए। पृष्ठ 151 पर जैन यतियों / भिक्षुओं के लिए वस्त्र त्याग का अनिवार्य लिखना भी सत्य नहीं जैन परंपरा में चेलक एवं अचेलक, दोनों तरह के साधुओं की परंपरा रही है।


पृष्ठ 162-163 पर स्थूलभद्र का कोशा को स्पर्श करना, पाश्र्व में बैठाना, अंक से लगाना भी एकदम गलत है। जैन साधु स्त्री को एवं जैन साध्वियां पुरुषों को एकदम स्पर्श तक नहीं करते। पृष्ठ 162 पर स्थूलभद्र का मृगचर्म पर पद्मासन लगा कर बैठना भी सर्वथा गलत है। जैन साधु-साध्वी चर्म वस्त्रों का उपयोग करना तो दूर, छूते तक नहीं हैं।


ऐसी कई बातें आप द्वारा लिखी गई हैं, जो कि सत्य नहीं हैं। इन्हें जैन या अजैन पढ़े तो भ्रम पैदा करती हैं। मेरा आप से अनुरोध है कि आप इसका दूसरा संस्करण संशोधित कर निकालें, तो आप जनसाधारण को भ्रमित होने से बचा पायेंगे। द्वितीय संशोधित पुस्तक के लिए मैं यथासंभव सहयोग करने के लिए तैयार हूं। इसमें आप का दोष मैं नहीं मानता, क्योंकि आप जैन नहीं हैं एवं स्थूलिभद्र जी के बारे में आप को उचित सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाई। यही मुख्य कारण रहा है। मेरे लिखे हुए को आप अन्यथा लें। उपरोक्त में कुछ गलत लिखा गया हो तो क्षमा चाहता हूं शेष शुभ। पत्रोत्तर प्रार्थनीय है। स्थूलभद्र संदेश के लिए आप से निरंतर मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता हूं। 


- ललित कुमार नाहटा


                                                                                   पत्रोत्तर


सुहृदवर श्री नाहटा जी, हार्दिक अभिवादन! 


पाटलिपुत्र की राजनर्तकी के संदर्भ में प्रेषित आप का आलोचनात्मक पत्र विलम्ब से हस्तगत हुआ, क्योंकि आवश्यक कार्यवश मैं नगर में उपस्थित नहीं था। एतदर्थ पत्रोत्तर में अनावश्यक विलम्ब के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। आप के कथनानुसार मैं जैन धर्मावलम्बी नहीं हूं, किन्तु जैन मुनि स्थूलभद्र और महासाध्वी कोशा तो मेरे आराध्य देव-देवियों की भांति मेरे रोम-रोम में समा चुके हैं। प्रायः तीन दशक तक उस जितेन्द्रिय महापुरुष के उज्ज्वल चरित्र को अपने आचरण और व्यवहार में संजोए मैं अविकल भाव से उनके देवत्वपूर्ण चरित्र का भावपूर्ण चित्रण करता रहा।


प्रकृति प्रदत्त प्रभाव त प्रभाव के अनकल ही 18 वर्ष और अपवाद स्वरूप 15 वर्ष की अवस्था में पुरुष का विपरीत लिंग की ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक है। जैन ग्रंथों के अनुसार मुनि स्थूलभद्र प्रायः 12 वर्ष तक र्वभोग्या गणिका कोशा के रूप जाल में फंसे रहे पिता की अकालमृत्यु के फलस्वरूप सांसारिक सुखों से उनका मोहभंग हुआ और वह भोग से योग की ओर प्रवृत्त हुए। अतः जैन ग्रंथों के अनुसार 32 वर्ष की अवस्था के बाद ही स्थूलभद्र ने वैराग्य ग्रहण किया होगा। ऐसी स्थिति में नालंदा  और तक्षशिला जैसे जगत प्रसिद्ध विद्यापीठों से स्थूलभद्र द्वारा सर्वोच्च शिक्षा ग्रहण के अतिरिक्त वीणा वादन की उनकी अभूतपूर्व उपलब्धियों के अनुत्तरित प्रश्नों का समुचित समाधान किस भांति संभव है? साथ ही सद्धर्म के यत्र तत्र बिखरे धर्मसूत्रों के संकलन और संपादन का श्रमसाध्य एवं पाण्डित्यपूर्ण महायज्ञ की पूर्णाहुति उच्च अध्ययन के अभाव में स्थूलभद्र द्वारा किस तरह संपन्न हो सकी? इन तर्कसंगत प्रश्नों के आलोक में 32 वर्ष की अवस्था के पूर्व स्थूलभद्र द्वारा वैराग्य ग्रहण अथवा नृत्यांगना कोशा से उनके संपर्क का तर्क तथ्यपूर्ण प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उच्च शिक्षा तथा वीणा वादन की अद्भुत क्षमता के अभाव में स्थूलभद्र की असाधारण प्रतिभा एवं आध्यात्मिक ज्ञान का चमत्कार संभव नहीं था। ऐसे ही कुछ अनुत्तरित प्रश्न कोशा के संदर्भ में भी जुड़े हैं।


जैन ग्रंथों के अनुसार वह सर्वभोग्या नगरवधू थी। देह व्यापार में लिप्त एक सामान्य वारांगनाI इस तथ्य के आलोक में एक सामान्य गणिका का शास्त्रीय नत्यकला के दिव्य सचिका नत्य में पारंगत होने का तर्क ग्राह्य नहीं हो पाता। 


दिव्य सूचिका नृत्य से निष्णात नृत्य-किन्नरी कोशा के कमल कोमल चरण स्थूलभद्र की महार्ध वीणा से निर्गत होती स्वर लहरियों के कर्णप्रिय निनाद से मिलकर विष बुझी कोटिशः सुइयों से निर्मित नृत्य मंच पर जब पलक मारते सक्रिय हो उठते, तब रह रह कर वह दिव्य नृत्य प्रदर्शन ऐसा प्रतीत होता, मानो स्वप्न लोक से प्रकट हुई नृत्यमग्न नृत्यांगना के अवलम्बन हीन चंचल पाद-पद्म मलय पवन के आश्लेष में घूम घूम कर द्रुत वेग से तरंगायित हो जाते हैं। उस नयनाभिराम नृत्य एवं वीणा निनादित कर्णप्रिय अद्भुत स्वर संगम के साक्षी रहे पाटलिपुत्र के कलाप्रेमी स्त्री पुरुष संज्ञाहीन आत्मविस्मृत हो उठते थे। कौमार्य व्रत धारण कर पुरुष वर्ग से विमुख हुई कोशा के समक्ष महाकवि वररूचि, अजेय रथपति सुकेतु व जगत  श्रेष्ठ रत्नसेन सरीखे कितने ही राजपुरुष बार बार प्रणय निवेदन कर के थक चुके थे। रूपगर्विता कोशा निर्विकार भाव से नृत्य साधना में डूबी रही। सम्राट धननंद के ध्यान के प्रमदवन में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के अवसर पर सुकेतु द्वारा सूचिका नृत्य की चुनौती पाकर मानिनी कोशा का दर्द जब दिव्य स्वरों के अभाव में दांव पर लगा था, तब मख्य अतिथि स्थूलभद्र का सुषुप्त कलाकार अनायास ही जाग उठा और पलक मारते दिव्य वीणा घोषवती से निर्गत होते दिव्य स्वरों के समन्वय से असंख्य बाणों से निर्मित मृत्यु मंच पर कोशा द्वारा सूचिका नृत्य का भव्य प्रदर्शन संपन्न हुआ। कौमार्य व्रत से विमुख हुई कोशा के मन और प्राण अनन्य वीणावादक स्थूलभद्र के सान्निध्य के लिए विकल विह्वल हो उठे। नृत्य एवं स्वर की साधना में डूबे इन्द्रजीत स्थूलभद्र मन की व्यथा से मुक्ति का मार्ग खोजते रहे और उन पर आसक्त हुई मानिनी कोशा उन्हें रिझा रिझा कर थक चुकी थी। तथागत की भांति स्थूलभद्र का महाभिनिष्क्रमण और पुन: लौटकर कोशा के रंगभवन में चातुर्मास्थ उद्यापन के पीछे विशुद्ध नैसर्गिक प्रेम की पराकाष्ठा का देवत्वपूर्ण उद्देश्यपूर्ण प्रदर्शन था। तप एवं त्याग से भूषित स्थूलभद्र ने मोहग्रस्त कोशा की सुषुप्त कुंडलिनी चक्र को स्पर्श मात्र से ही जागृत कर दिया मोहमुक्त होकर कोशा की अंतरात्मा दिव्यज्ञान से अभिभूत हो उठी। नैरात्म्यभाव में निमग्न हुई कोशा धर्मदेशना पाकर सद्धर्म को समर्पित हुई। 


पावापुरी लौटने पर दिव्यद्रष्टा दैवज्ञ सद्गुरू संभूति विजय ने धर्मप्राण इंद्रियजीत स्थूलभद्र को अपना आधा आसन प्रदान करते हुए अभूतपूर्व स्वागत किया। व्याघ्र की गुहा में चातुर्मास्य उद्यापन कर लौटा बाल ब्रह्मचारी ऋतुकांत ईष्र्या की ज्वाला में जल उठा । अगले वर्ष कोशा की रंगशाला में चातुर्मास्य उद्यापन हेतु उसने सद्गुरू की अनुज्ञा ली। कोशा का अलंघ्य  द्वार जैन श्रमण के स्वागत में खुल गया। नवनिर्मित पर्णकुटी में उसने व्रत आरंभ किया, किंतु लाख प्रयास करने पर भी वह चंचल चित्त को एकाग्र कर पाने में असफल ही रहा। अनिंद्य सुंदरी कोशा के कमनीय सौंदर्य से चमत्कृत हुआ बाल ब्रह्मचारी संभोग सुख के लिए व्यग्र हो उठा था। अंततः कोशा के दाहक सौंदर्य के वशीभत होकर एक दिन उसके श्री चरणों में पड़ा अकिंचन भाव से वह प्रणय निवेदन कर रहा था। उस अप्रत्याशित घटना से साध्वी नृत्यांगना क्षणभर के लिए स्तब्ध सी रह गई। कामग्रस्त योगी को वह समझा-समझा कर थक चुकी थी। बाध्य होकर धर्मभीरू कोशा सद्धर्म की रक्षा के लिए अपने कमल नयनों को फोड कर मदांध योगी की आंखें खोल दीं। असत्य पर सत्य की, अज्ञान पर ज्ञान की और तम पर ज्योति की विजय हुई। 


अनन्य त्याग एवं बलिदान की यह अद्भुत गाथा कितनी सशक्त एवं प्रेरणाप्रद है विश्व इतिहास साहित्य और कला के व्यापक क्षेत्र में कोशा और स्थूलभद्र के प्रेरक प्रसंग की समता शायद ही कहीं संभव हो सके। अतएव ऐसी अभूतपूर्व सशक्त गाथा पाकर मैं परम पावन जैन ग्रंथों के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति की भावना से नतमस्तक हूं किंतु देवत्वपूर्ण सद्गुणों से संपन्न उन प्रात:स्मरणीय पात्रों के प्रति पवित्र ग्रंथों का दुराग्रह मेरी समझ से परे है। 


करूणामयी कोशा से उपकृत हुए राष्ट्रनिर्माता चन्द्रगुप्त और चाणक्य द्वारा पाटलिपुत्र के दक्षिण-पश्चिम स्थित सिद्ध क्षेत्र कमलदह में निर्मित दुग्ध धवल गगनचुंबी मर्मर मंदिर में उस ममतामयी देवी की पावन प्रतिमा की प्राण प्रतिष्टा की ऐतिहासिक घटना उस महिमामयी नारी की महानता का यथेष्ट प्रमाण है। कालांतर में निर्वाण प्राप्ति के बाद स्थूलभद्र भी कोशा की पावन प्रतिमा के पार्श्व में ही स्थापित हुए। यद्यपि स्थूलभद्र आज भी पूजे जाते हैं, किंतु कोशा प्रायः विस्मृत हो चुकी है। परम पावन जैन ग्रंथों की विरोधाभासी स्थापना की यह कैसी घोर विडम्बना है? 


प्रिय बंधु नाहटा जी! जैन ग्रंथों को सर्वभोग्या नगरवधू तथा युग-युग से उपेक्षित कोशा को उसकी संपूर्ण अस्मिता के अनुकूल ही अपनी श्रमसाध्य कृति 'पाटलिपुत्र की राजनर्तकी' में उसे अक्षत योनि परम आदरणीया महासाध्वी के रूप में उसी भांति महिमा मंडित करने का मैंने विनम्र प्रयास किया है, जिस भांति मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह 'दिनकर' ने क्रमशः उर्मिला और कर्ण जैसे उपेक्षित पात्रों को रामायण और महाभारत जैसे पवित्र ग्रंथों की परिधि से उन्मुक्त करते हुए साहित्य और कला के क्षेत्र में संपूर्ण अस्मिता के साथ उन्हें पुनः प्रतिष्ठित किया है। अतएव किसी धर्मप्राण जैन धर्मावलम्बी की भावना के प्रतिकूल भूलवश हुई सामान्य त्रुटियों के लिए मैं विनम्रतापूर्वक क्षमाप्रार्थी हूं। साथ ही सद्धर्म के प्रति समर्पित आप जैसे प्रतिष्ठित जैन बंधुओं से मेरा आग्रह है कि महाश्रमण गौतम और महाप्राण महावीर स्वामी की भांति इंद्रियजीत यति स्थूलभद्र को विश्व इतिहास, साहित्य और कला के व्यापक क्षेत्र में अपेक्षित स्थान पाने दें। ‘पाटलिपुत्र की राजनर्तकी' को धर्मग्रंथों से न जोड़कर विशुद्ध साहित्यिक रूप में इस सशक्त कृति का पठन-पाठन अत्यधिक श्रेयस्कर होगा। व्यापक प्रचार प्रसार के अतिरिक्त उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों, दूरदर्शन अथवा फिल्मीकरण द्वारा अज्ञात स्थूलभद्र उनकी अभूतपूर्व उपलब्धियों के साथ स्थापित करना अनिवार्य है। इसी विनम्र अनुरोध के साथ भूलवश हुई कथित त्रुटियों के संशोधन के लिए मैं प्रस्तुत हूं जिसके लिए द्वितीय संस्करण का प्रकाशन अनिवार्य, जो आवश्यक सहयोग के अभाव में तत्काल संभव नहीं है। इस संदर्भ में आवश्यक सहयोग का आश्वासन पाकर मेरा रोम-रोम हर्षित हो उठा है। 


- रामेश्वर प्रसाद सिंह


किस दिशा में होनी चाहिए दीप की लौ


हमारे धार्मिक शास्त्रों के अनुसार हिन्दु धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले दीपक जलाए जाते हैं। सुबह शाम होने वाली पूजा में भी दीपक जलाने की परंपरा है। 


वास्तुशास्त्र में दीपक जलाने व उसे रखने के संबंध में कई नियम बताए गए हैं। दीपक की लौ किस दिशा की ओर होनी चाहिए, इस संबंध में वास्तु शास्त्र में पर्याप्त जानकारी मिलती है। वास्तु शास्त्र में यह भी बताया गया है कि दीपक की लौ किस दिशा होने पर उसका क्या फल मिलता है-


पूर्व दिशा : दीपक की लौ पूर्व दिशा की ओर रखने से आयु में वृद्धि होती है।


पश्चिम दिशा : दीपक की लौ को पश्चिम दिशा की ओर रखने से दुख बढ़ता है।


दक्षिण दिशा : दीपक की लौ दक्षिण दिशा की ओर रखने से हानि होती है। यह हानि किसी व्यक्ति या धन के रूप में भी हो सकती है।


किसी शुभ कार्य से पहले दीपक जलाते समय इस मंत्र का जाप करने से शीघ्र ही सफलता मिलती है-


दीपज्योतिः परब्रह्मः दीपज्योतिः जनार्दनः।


दीपोहरति मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तुते॥


शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं सुख सम्पदा।


शत्रुवृद्धि विनाशं च दीपज्योतिः नमोऽस्तुति॥