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पुनरावलोकन


( 20 वर्ष पूर्व अगस्त, 1998 में प्रकाशित सम्पादकीय : आज भी प्रासंगिक)


डॉ. राम प्रसाद सिन्हा अपनी पुस्तक ‘धर्म दर्शन' में लिखते हैं- ‘धर्म के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर पता चलता है कि संसार में सभी धर्म मनुष्य के कल्याण की अपेक्षा हानिकारक ही अधिक रहे हैं। धर्मों ने मानव के बीच दीवार खड़ी की है और मानवता को विभिन्न टुकड़ों में बांट दिया है। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर लोगों ने एक दूसरे पर इतना जघन्य अत्याचार किया है कि उनका वर्णन करना कठिन है। धर्म सदैव शोषक, उत्पीड़न, अन्याय और अत्याचार के साथ रहा है। धर्म के नाम पर कितने अत्याचार किये गये, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। बौद्ध धर्म का मूलमंत्र अहिंसा है, किंतु बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए ही हिंसा का सहारा लिया गया। इस्लाम के नाम पर पता नहीं कितनों के सर कलम कर दिये गये। सभ्यता के नाम पर ईसाई जाति के लोगों ने उत्तरी अमेरिका एवं लैटिन अमेरिका के कालों का भरपूर दमन किया।'


डॉ. सिन्हा के इस कथन से स्पष्ट है कि धर्म के नाम पर दुनिया में अत्याचार भीषणतम रूप में हुए। जैन धर्म पर भी जैनेतरों द्वारा किये गये अत्याचारों का उल्लेख इतिहास में मिलता है। अन्य धर्मों में तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि एक धर्म के दो धड़ों के बीच भयंकर हिंसात्मक संघर्ष हुए, पर जैन धर्म अभी तक तो अछूता है। कारण, जैन धर्म के चतुर्विध संघ का संचालन अभी तक उन्हीं व्यक्तियों के हाथों में था, जो जैन धर्म के सिद्धान्तों को अपने आचरण में ढाले हुए थे। लेकिन अब भविष्य के प्रति चिंता अवश्य है। कारण, अब नेतृत्व कुछ ऐसे व्यक्तियों के हाथों में जा रहा है, जो जैन धर्म के मर्म को नहीं समझते और उनका मुख्य उद्देश्य धर्म की ओर न होकर व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति करने का है व जैन संघ में फूट के  बीज बोकर अपनी नेतागिरी की हवस पूरी करने का हैआज धर्म के ठेकेदारों का स्वार्थ ‘जिओ और जीने दो' के आदर्श सिद्धान्तों की घोरतम अवहेलना कर रहा है। लम्बे-लम्बे व जोरदार भाषणों में बात तो सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की करते हैं, परंतु निजी स्वार्थ के सम्मुख जैन धर्म के हित की बलि लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते।


उपरोक्त बातों को देखते-सुनते अगर हम चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं तो हम भी अपराध के बराबर भागीदार बन जाते हैंरामधारी सिंह दिनकर' ने ऐसे ही आचरण के लिए लिखा था-


समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध।


जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध॥


मेरे जैसे एक सम्पादक ने लिखा था कि बुरा होना अथवा बुराई में सहयोग देना तो बुरा है ही परंतु चुप रह कर हम उससे भी अधिक बुरे बन जाते हैं।


झूठ सहना या कोई भ्रम फैला रहा है तो चुप बैठे रहना मेरी प्रकृति में नहीं हैमैंने कभी किसी के विरोध में नहीं लिखा व व्यक्तिगत आरोप के विरुद्ध तो मैं स्वयं भी रहा ही हूं। लेकिन भ्रम निवारण हेतु या झूठ का पर्दाफाश करने हेतु मैं हमेशा सजग रहा हूं। पूर्व में लिखे मेरे प्रत्येक लेख को आप ध्यान से देख लें। मैंने जब भी लिखा तो झूठ या भ्रम की प्रतिक्रिया स्वरूप स्पष्टीकरण के उद्देश्य से लिखा। अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए मिथ्यात्व का सहारा कभी नहीं लिया। परिस्थितियां विस्फोटक बनें, इस उद्देश्य से जो झूठ या भ्रम का गुब्बारा भर कर विस्फोट करना चाहते हैं, मैं तो समय रहते उस गुब्बारे की हवा भर निकालता हूं, जिसे विघ्न संतोषी व्यक्ति कहते हैं कि ललित नाहटा ने तो हमारे किये कराये पर पानी फेर दिया। मेरा उद्देश्य किसी की मेहनत को जाया करना नहीं। मेरा तो मात्र उद्देश्य यही है कि हमारे सहधर्मी भाई भ्रम के वातावरण से उबरें। मैं चाहता हूं कि मेरे लिखे की जांच करें और कहीं गलत लिखा है तो मुझे बतायें।


भगवान महावीर ने कहा है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। जैसे पानी का धर्म शीतलता और नीचे की तरफ बहना और अग्नि का धर्म उष्णता और ऊपर की ओर बढ़ना है। उसी प्रकार विघ्न संतोषी व्यक्ति का स्वभाव के अनुसार धर्म है कि विघ्न पैदा करने के लिए झूठ व भ्रम फैलाना और मेरा अपने स्वभावानुसार धर्म है झूठ का पर्दाफाश कर धर्म का निवारण कर जैन संघ में शांति बनाये रखना।


यह सृष्टि सूक्ष्म और स्थूल स्थिर और जंगम जीवों से ठसाठस भरी हुई है। यहां कोई स्थान या पदार्थ विहीन जीव नहीं है। इसलिए मनुष्य का पूर्ण अहिंसक हो जाना संभव नहीं है। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती रहे और हिंसा न हो, ऐसा संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में हिंसा से बच कर अहिंसा की ओर जीवन को प्रेरित करने के लिए हमारे परम कृपालु आचार्यों, संतों, उपदेशकों, विद्वानों ने परमात्मा के दिशा निर्देशों के आधार पर अल्पमत हिंसा वाली जीवन पद्धति का आविष्कार किया है। उसी का अनुसरण कर मैं स्पष्टीकरण करता हूं अपनी पत्रिका के माध्यम से उन मिथ्या संदेशों का, जो सबसे हिंसात्मक वातावरण फैलाते हैंमैं मानता हूं कि मेरे स्पष्टीकरण से सभी संतुष्ट नहीं होते, वरन दो-चार तो ऐसे भी हैं, जिससे मेरे प्रति द्वेष पनपता और फैलता है। यह भी सत्य है कि मेरा न तो किसी से वैरभाव है, न ही स्पष्टीकरण के कारण मुझे कोई व्यक्तिगत उपलब्धि होती है। मैं तो मात्र जिनशासन की सेवा करने के निमित्त संघ से भ्रम को दूर करने के लिए कार्य करता हूं। चाहे दो चार व्यक्तियों को भले ही पीड़ा पहुंचे, पर पूरे संघ को तो धर्ममय एवं भाईचारे का वातावरण मिलता है, ऐसा विश्वास है। 


फिर पूर्व अंकों में लिखी अपनी पंक्तियों को दोहराता हूं कि सत्य न तो कटु होता है, न मधुर। सत्य तो बस सत्य ही होता हैस्पष्ट लिखने से किन्हीं दो चार को कष्ट पहुंचाकर भी अगर पूरे संघ में शांति फैलती है, सत्य की स्थापना होती है और भविष्य सुन्दर बनता है तो हमें स्पष्टीकरण देना ही चाहिए उन दो-चार की परवाह किये बिना। 


परम श्रद्धेय आचार्य श्री नानेश के शब्दों में आत्मा से तो हम झूठ नहीं बोल सकते, उसे धोखा नहीं दे सकतेयह कठोर सत्य है। तो आप निरीक्षण करें और अपनी सही स्थिति का पता लगा लें। इसके बाद तो आगे का रास्ता अपने आप खुल जाता है। फिर निर्भर हम पर करता है कि हम कितनी जल्दी उस रास्ते पर चल सकते हैं और कितनी दूर तक उस पर आगे बढ़ पाते हैं। हो सकता है कि दुर्बल मनोबल हमारी गति में बाधक बने। परंतु यह भी एक उपलब्धि होगी इस रूप में कि हम गलत दिशा में जाने से बच जायेंगे। फिर यह परिस्थिति पर निर्भर करेगा कि हम कितनी शीघ्र सम्मुख उद्घटित मार्ग पर चल पड़ते हैंक्यों की आत्मपरीक्षण के नौ सूत्र हमें आश्वस्त ही नहीं प्रेरित भी करेंगे कि हम उस जय यात्रा के सहभागी बन जाये तो उस लक्ष्य तक पहुंचा देती हैजहां सब कुछ शान्त, आनंदमय और शाश्वत बन जाता है।


अंत में आप के छोटे से भ्रम के निवारण हेतु लिखे तीर्थंकर परमात्मा के निम्न उपदेश की पंक्तियों को लिखकर समाप्त करता हूं। 


जं इच्छसि अप्पणतो जं च, पा इच्छसि अप्पणतो।


तं इच्छ परस्स वि या, एतियगं जिणसासण॥ 


अर्थात जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए चाहो तथा जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी न चाहो, यही जिनशासन है। 


पर्वाधिराज पर्युषण पर सभी अर्थात जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए चाहो तथा जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी न चाहो, यही जिनशासन है। 


पर्वाधिराज पर्युषण पर सभी से क्षमा याचना।