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सम्पादकीय पर सम्पादकीय


चिंतक डॉ. ज्ञान जैन, चैन्नई ने 'दीक्षा का स्वरूप' नामक सम्पादकीय (खरतरवाणी, फरवरी, 2018) में जो लिखा उसका मंथन किया जाना चाहिये संतों व श्रावकों द्वारा। वर्तमान में ऐसे कितने संत हैं "जिन्हें नहीं है अहं, किसी पर राज करने की अभिलाषा, नहीं है माया, यथार्थ को अयथार्थ समझना, नहीं है लोभ कुछ पाने की तरंगे-कंचन कामिन, कीर्ति से ऊपर उठकर जहाँ 'मैं' भी नहीं, मात्र ‘हूँ' अहंता नहीं अर्हता है।''


जीवन जीने की वो कला है जिसमें ना राग होता है, ना द्वेष, ना ही मोह। होता है बस एक ही भाव-मैत्री का, करुणा का, प्रमोद का, मध्यस्थता का। दान, शील, तप और सद्भाव का। ये कला और भाव क्यों कहीं नहीं नज़र आते हैं?


मैं अपवाद की बात नहीं करता, ये दुर्लभ कला है दुर्लभ भाव है जिसके शोध की ज़रूरत है कि कहां व किसमें उपलब्ध है। जो शोध कर लेगा सही मानों में वो पी.एच.डी. उपाधि से अलंकृत होने लायक है। सर्वथा त्याग करने वाले अर्थात घर-संसार, धन, नाम व यहां तक की रिश्तों का उद्बोधन भी, ऐसे लोगों में उपरोक्त कला व भाव का अभाव है तो उनका उपदेश कैसे प्रभावशाली रह पायेगा।


पहले मैं हरदम कहा करता था कि हमारे संतों के सान्निध्य व सामिप्य में आपको कोई अन्तर नहीं आयेगा। लेकिन अब कहने में संकोच होता है। जैनेतर संत की नहीं जैन संत वह भी अपने-अपने समुदाय में ही उपरोक्त  अन्तर परिलक्षित है। उपरोक्त आलेखन का अधिकारी हैं या नहीं ऐसा प्रश्न भी लोग उठायेंगे। एक दृष्टि से प्रश्न उचित भी होगा। लेकिन जब अपने आपको एक प्रकाशक व सम्पादक के बिन्दु से देखता हूँ तब निर्णय करता हूँ कि हाँ, मुझे इन बिन्दुओं को छूना चाहिये व यह मेरा उत्तरदायित्व भी है। एतदर्थ यह सम्पादकीय, पूर्व के व भविष्य का भी।



बिना मन जाप का फल


एक बार तुलसीदास जी से किसी ने पूछा : कभी-कभी भक्ति करने को मन नहीं करता फिर भी नाम जपने के लिये बैठ जाते हैं, क्या उसका भी कोई फल मिलता है? तुलसीदास जी ने मुस्करा कर कहा:-


तुलसी मेरे राम को रीझ भजो या खीज।


भौम पड़ा जामे सभी उल्टा सीधा बीज।


अर्थात्:-भूमि में जब बीज बोये जाते हैं तो यह नहीं देखा जाता कि बीज उल्टे पड़े हैं या सीधे पर फिर भी कालांतर में फसल बन जाती है, इसी प्रकार नाम सुमिरन कैसे भी किया जाये उसका फल अवश्य ही मिलता है।


अमेरिकी शासन की कुछ विशेषताएं


अमेरिका में देश के लिए राष्ट्रपति, प्रान्त के लिए राज्यपाल तथा नगर के लिए नगरपालिका अध्यक्ष, ये सभी सीधे जनता के द्वारा चुने जाते हैं। इसलिए सांसदों को, विधायकों को और पार्षदों को चुनाव के पश्चात आपसी गठजोड़ करने की या खरीद-बेच करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। 


विधायिका और कार्यपालिका अलग-अलग है। संसद विधायिका का काम करती है और राष्ट्रपति के ऊपर कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। सांसद तथा राष्ट्रपति सीधे तौर पर देश की जनता के द्वारा चुने जाते हैं। इसलिए उनका अस्तित्व एक दूसरे पर आश्रित नहीं है। इसलिए भ्रष्टाचार नहीं है। 


सांसद और विधायक मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बनाये जाते और न ही उन्हें कोई और लाभ का  पद दिया जाता है। ये सांसद और विधायक ही बने रहते हैं। इसलिए उनका सीधा संबंध जनता से ही  रहता है और वे जनता के लिए अच्छी व्यवस्थायें बनाते हैं। 


प्रशासन में राष्ट्रपति के सहायक के रूप में सचिव हैं, जिनकी संख्या 15 निश्चित है। राष्ट्रपति सारे देश में से योग्यता के आधार पर सचिवों का चयन करते हैं। उनकी स्वीकृति सीनेट (संसद का एक सदन) देती है। 


अपने स्वार्थ के लिए कोई भी चुनाव को आगे पीछे नहीं कर सकता। राष्ट्रपति और सांसद के चुनाव की तिथियां संविधान के द्वारा निश्चित की हुई हैं। 


अवधि : राष्ट्रपति की अवधि चार वर्ष है। कोई भी व्यक्ति दो से अधिक बार राष्ट्रपति नहीं बन सकता। संसद के एक सदन की अवधि दो वर्ष है तथा दूसरे सदन सीनेट की अवधि 6 वर्ष है। हर दो वर्ष के पश्चात सीनेट के एक तिहाई नये सदस्य चुन कर आते हैं।


उपचुनाव : उपचुनाव नहीं होते। राष्ट्रपति का पद खाली होने पर अगले चुनाव तक के लिए उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बना दिया जाता है। उपराष्ट्रपति का पद खाली होने पर संसद की स्वीकृति पर राष्ट्रपति देश में से किसी भी योग्य व्यक्ति को अगले चुनाव तक के लिए उपराष्ट्रपति बना देते हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव एक जोड़े के तौर पर होता है। अलग-अलग नहीं। संसद का कोई स्थान खाली होने पर उसी निर्वाचन क्षेत्र का और उसी राजनैतिक दल का कोई व्यक्ति अगले चुनाव तक के लिए मनोनीत कर दिया जाता है। संसद भी कभी भी बीच में भंग नहीं होती, क्योंकि संसद का अस्तित्व किसी प्रस्ताव के पास या फेल होने पर आश्रित नहीं है। इसलिए मध्यावधि चुनाव भी नहीं होते।


सांसद या राष्ट्रपति अपने वेतन भत्ते स्वयं नहीं बढ़ा सकते। इस संबंध में जब कोई प्रस्ताव पास होता है, वह उस समय के सांसदों या राष्ट्रपति पर लागू नहीं होता। उनकी अवधि पूरी होने पर अगली संसद और राष्ट्रपति पर लागू होता है। 


देश में कोई भी दिखावे का पद नहीं है। सभी के लिए पद के हिसाब से काम तथा उसी हिसाब से वेतन है।


कोई भी अपराधी या आरोपी चुनाव नहीं लड़ सकता। अगर किसी सांसद या विधायक पर कोई आरोप लग जाता है तो उसे तुरंत अपना पद छोड़ना पड़ जाता है। 


मंत्रियों के कोटे या सांसद निधि आदि नहीं है। सांसदों, सचिवों, जजों, सरकारी अफसरों आदि को सरकार की तरफ से कार, कोठी, नौकर आदि नहीं दिये जाते।


न्यायपालिका पूर्ण रूप से स्वतंत्र तथा निष्पक्ष है तथा शीघ्र न्याय देती है।


सम्प्रदायिकता : किसी भी मज़हब के आधार पर देश में कोई कानून नहीं है। सभी कानून समता के आधार पर बने हैं। मज़हब सभी के लिए एक निजी और व्यक्तिगत विषय है। राष्ट्रीय या सरकारी विषय नहीं है। किसी मज़हब को बढ़ावा नहीं दिया जाता है इसलिए साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते।


 जाति-पांत का नामोनिशान नहीं है। कोई ऊंच-नीच नहीं जानता। 


कोई भी किसी प्रकार का आरक्षण नहीं है सभी कुछ योग्यता के आधार पर है। जो जिसके योग्य है, उसे वह काम मिल जाता है। योग्यता बढ़ाने के लिए सभी को अवसर उपलब्ध हैं। 


हाईस्कूल अर्थात 12 वर्ष तक की संपूर्ण शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क है और दस वर्ष तक की शिक्षा सभी लड़के लड़कियों के लिए अनिवार्य है। इसलिए जनसंख्या और बेरोजगारी नियंत्रित है। बाल विवाह और बाल मजदूर नहीं होते। 


नौकरी की सुरक्षा नहीं है इसलिए लोग मेहनत और ईमानदारी से काम करते हैं। रोटी की सुरक्षा सबके लिए है।


अमेरिकी संविधान : अमेरिका का संविधान सन् 1727 में बना था। उसमें अब तक कुल 27 संशोधन हुए हैं। मूल संविधान तथा संशोधनों को मिलाकर कुल पच्चीस पृष्ठ की पुस्तिका के आकार का अमेरिका का संविधान है। 


अमेरिका की सुव्यवस्था, समृद्धि, उन्नति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का श्रेय उनके 221 वर्ष पुराने संविधान को तथा उसे बनाने वालों को ही जाता है। 


भाषा : अमेरिका में सैकड़ो भाषायें बोलने वाले लोग रहते हैं, परंतु केंद्र सरकार तथा सभी प्रांतीय सरकारों की भाषा एक ही है- अंग्रेजी। इसलिए सारा देश एक इकाई के रूप में उभरा है। 


मेहनत करने वाला कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं है। मेहनत से कोई भी व्यक्ति थोड़े से समय में अपनी गरीबी दूर कर सकता है। शारीरिक काम करने वालों को मेहनताना दफ्तरों में काम करने वालों से कम नहीं मिलता। 


राजनेताओं के पास कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं होते, इसलिए कोई भी लोग उनके आगे पीछे नहीं फिरते। वैसे भी खुशामद करना या गिड़गिड़ाना बहुत बुरा माना जाता है। दफ्तरों में भी गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता। आत्म-स्वाभिमान को महत्व दिया जाता है।


अमेरिका में लड़का-लड़की में प्रेम विवाह ही होते हैं। इसलिए दहेज का अभिशाप नहीं है और लड़की माता-पिता पर बोझ नहीं है। बुढ़ापे में पेंशन सबको मिलती है, इसलिए बुढ़ापे में लड़के का सहारा ढूंढ़ना नहीं पड़ता। इन कारणों से लड़का-लड़की दोनों बराबर समझे जाते हैं। कन्या भ्रूणहत्यायें नहीं होती। वहां पर स्त्रियों की संख्या पुरूषों की अपेक्षा ज्यादा है। 


- कृष्णचंद्र गर्ग


(साभार : युवा उद्घोष)